डोनाल्ड ट्रम्प कब, क्या कर बैठेंगे, इसका अनुमान लगाना मुश्किल है। जिस तरह से उन्होंने यूक्रेन और यूरोप को अपने हाल पर छोड़कर रूस की ओर हाथ बढ़ाया है, उससे नाटो और ईयू को झटका लगा है। कई लोगों का मानना है कि रूस के लिए उनकी योजना का मकसद चीन-रूस संबंधों को तोड़ना है, लेकिन मौजूदा वैश्विक भू-राजनीतिक माहौल को देखते हुए यह दूर की कौड़ी लगती है। कनाडा, डेनमार्क, पनामा पर दिखाई सख्ती के उलट ट्रम्प ने अभी तक शी जिनपिंग के लिए केवल सकारात्मक शब्द कहे हैं। उन्होंने उन्हें अपने उद्घाटन समारोह में भी आमंत्रित किया था। तो चीन को लेकर उनके दिमाग में क्या खिचड़ी पक रही है, इसका अनुमान लगाना आसान नहीं है। अपने पहले कार्यकाल में ट्रम्प चीन विरोधी गठबंधन क्वाड के पुनरुद्धार के लिए जिम्मेदार थे। उन्होंने चीनी आयातों पर टैरिफ लगाकर अमेरिका से कुछ तकनीकों के निर्यात को प्रतिबंधित करना शुरू कर दिया था। उनकी इन दोनों नीतियों को बाइडेन प्रशासन ने न केवल जारी रखा, बल्कि वास्तव में उन्हें और सख्त भी बना दिया था। लेकिन जनवरी 2020 में- अपने पहले कार्यकाल के आखिरी साल में- ट्रम्प ने चीन के साथ पहले चरण के व्यापार समझौते पर भी हस्ताक्षर किए थे, जिसके तहत बीजिंग को अमेरिका से 200 अरब डॉलर के अतिरिक्त सामान और सेवाओं का आयात करने की प्रतिबद्धता जताई गई थी। ट्रम्प चुनाव हार गए और वह कोविड का साल भी था, इसलिए वह सौदा पूरा नहीं हो पाया। उसमें चीनियों ने विदेशी कम्पनियों के लिए कुछ बाजार खोलने, टेक्नोलॉजी सम्बंधी गोपनीयता की रक्षा करने और अमेरिकी कृषि उत्पादों और ऊर्जा को खरीदने का भी वादा किया था। ट्रम्प की सत्ता में वापसी के बाद से जिनपिंग पर उनके बयान दिलचस्प रहे हैं। उन्होंने जिनपिंग की प्रशंसा के पुल बांधे हैं और उन्हें एक बेहतरीन व्यक्ति और अपना अच्छा दोस्त बताया है। लेकिन साथ ही ट्रम्प ने चीन को टैरिफ के नए दौर की धमकी भी दी और 1 फरवरी को उन्होंने बीजिंग के सभी आयातों पर 10 प्रतिशत टैरिफ लगा दिया। उन्होंने ये भी कहा कि अभी तो ये शुरुआत है। उन्होंने चीन और हांगकांग से डिलीवरी रोकने का फैसला भी लिया था, लेकिन अगले ही दिन इस फैसले को पलट दिया। न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार ट्रम्प वहीं से शुरू करने पर विचार कर रहे हैं, जहां से उन्होंने छोड़ा था। इस बार वे एक व्यापक समझौते की तलाश में हैं, जिसमें परमाणु हथियार सुरक्षा जैसे मुद्दे भी शामिल हो सकते हैं। लेकिन अभी तक यूक्रेन और रूस में उलझे रहने के कारण ट्रम्प प्रशासन यह तय नहीं कर पाया है कि वह चीन से क्या चाहता है। उधर चीन से मिली रिपोर्टों से पता चलता है कि बीजिंग ट्रम्प के संभावित विकल्पों के पूरे स्पेक्ट्रम से निपटने की तैयारी कर रहा है। अगर ट्रम्प चीन पर सख्त रुख अपनाते हैं, तो बीजिंग उसके लिए तैयार है। दूसरी ओर अगर अमेरिका कोई समझौता करना चाहता है तो बीजिंग ऐसे निवेश की पेशकश करेगा, जिससे सोलर एनर्जी, ईवी और बैटरी सम्बंधी उद्योगों में पांच लाख नौकरियां पैदा होंगी। इसके साथ ही अमेरिकी वस्तुओं और सेवाओं की पर्याप्त चीनी खरीद और वैश्विक बाजार में डॉलर की प्रधानता बनाए रखने की प्रतिबद्धता भी होगी। ट्रम्प विश्व-अर्थव्यवस्था को डॉलर रहित बनाने के ब्रिक्स देशों के कथित प्रयासों से नाराज हैं। नए ट्रम्प प्रशासन में एनएसए माइक वाल्ज़, विदेश मंत्री मार्को रुबियो और वरिष्ठ व्यापार सलाहकार पीटर नवारो जैसे चीन समर्थक हैं। लेकिन उसमें ट्रेजरी सचिव स्कॉट बेसनेट, वाणिज्य सचिव हॉवर्ड लुटनिक और इलोन मस्क जैसे लोग भी हैं, जो तर्क देते हैं कि अमेरिका चीन के साथ डील करने की अच्छी स्थिति में है। ट्रम्प खुद अमेरिकी टेक्नोलॉजी पर प्रतिबंधों या ताइवान की स्वतंत्रता को लेकर ज्यादा उत्साहित नहीं दिखते। वे इन चीजों को चीन के साथ एक अच्छी डील करने के अवसर के रूप में देखते हैं। लेकिन जैसी कि ट्रम्प की खास शैली है, वे इसके विपरीत संकेत भी दे हैं। पिछले दस दिनों में उन्होंने उद्योग और सुरक्षा ब्यूरो के प्रमुखों को नियुक्त किया है, जो चिप को लेकर निर्यात-नियंत्रणों से सम्बंधित है। 21 फरवरी को, व्हाइट हाउस ने अमेरिका फर्स्ट इन्वेस्टमेंट पॉलिसी मेमोरेंडम जारी किया, जो मुख्य रूप से अमेरिका में चीनी निवेश और चीनी फर्मों में अमेरिकी निवेश के बारे में है। मेमो में चीन पर निशाना साधते हुए उसे उत्तर कोरिया, रूस, ईरान और वेनेजुएला के समान ही एक दुश्मन-देश बताया गया। जैसा कि हमने पहले ही कहा था, ट्रम्प कब, क्या करेंगे, कोई बतानहीं सकता। चीन को लेकर डोनाल्ड ट्रम्प के दिमाग में क्या खिचड़ी पक रही है, इसका अनुमान लगाना आसान नहीं है। एक तरफ वे शी जिनपिंग की सराहना कर रहे हैं, दूसरी तरफ चीन को दुश्मन बताकर उस पर टैरिफ भी थोप रहे हैं। (ये लेखक के अपने विचार हैं।)