आप लोगों को दिल्ली रेलवे स्टेशन पर भगदड़ के बाद रेलवे कांस्टेबल रीना की तस्वीर याद होगी। वे अपने एक साल के शिशु को एक कैरी-ऑन नैपसेक में सीने से बांधे हुए भीड़भाड़ वाले प्लेटफॉर्मों पर गश्त कर रही थीं। वे अपने डंडे और बच्चे दोनों को संभाले एक स्थिर मुस्कान के साथ खड़ी थीं। उस छवि को महिमामंडित किया गया था, रीना को उनके हौसले के लिए सराहा गया था और एक मां के प्यार और प्रतिबद्धता के उदाहरण के रूप में उनकी छवि को प्रस्तुत किया गया था। लेकिन मैं कहूंगी कि रीना के जीवन को इस नजरिए से देखना वास्तव में उन सभी चीजों को कम आंकना है, जिनसे उन्हें एक पैरेंट और एक पेशेवर होने के नाते गुजरना पड़ता है। और इस प्रक्रिया में हम उन चीजों को भी कम आंकते हैं, जिनका भारत में हर दिन करोड़ों महिलाएं सामना करती हैं। वास्तव में रीना की वह तस्वीर हमारे लिए एक रिमाइंडर होनी चाहिए कि शादी करने और मां बनने के बाद इतनी सारी महिलाओं के लिए काम पर बने रहना क्यों मुश्किल हो जाता है। हमारे नारीवादी विमर्श और काम पर पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता पर जोर देने से एक महत्वपूर्ण बिंदु की अनदेखी हो गई है। घर में समानता के बिना अधिकतर महिलाएं अपनी क्षमता का अधिकतम उपयोग नहीं कर सकती हैं। ज्यादातर भारतीय परिवार अपने बच्चों की देखभाल के लिए एक व्यापक कम्युनिटी-सपोर्ट पर निर्भर रहते हैं, जैसे कि दादा-दादी, नाना-नानी, पड़ोसी या ससुराल वाले आदि। संस्थागत और किफायती डे-केयर की अवधारणा आज भी भारत में मौजूद नहीं है। ऐसे में घर और चूल्हे-चौके के साथ-साथ अपने पेशेवर जीवन की देखभाल करने की जिम्मेदारी महिलाओं के कंधों पर आ जाती है। कई महिलाओं के लिए यह बोझ बहुत ज्यादा होता है। अनेक मामलों में महिलाएं इस सबके बावजूद काम जारी रखती हैं और एकसाथ कई भूमिकाएं निभाती हैं- केवल इसलिए क्योंकि उनके पास इसके सिवा कोई चारा नहीं होता। वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी के डेटा पर एक नजर डालने से ही कई महत्वपूर्ण बातें पता चल जाती हैं। एक तरफ जहां वर्कफोर्स में महिलाओं की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, वहीं शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के जीवन में एक उल्लेखनीय अंतर नजर आता है। ग्रामीण भारत में काम करने वाली महिलाओं की संख्या 2017-18 में 24.6% से लगभग 70% बढ़कर 2022-23 में 41.5% हो गई। इसके विपरीत, शहरी भारत में वर्कफोर्स में काम करने वाली महिलाओं की संख्या में 20.4% से 25.4% तक मामूली वृद्धि ही देखी गई। डॉ. शमिका रवि- जो प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद की सदस्य हैं- के नेतृत्व में किए गए अध्ययन में यह भी पाया गया कि विवाह के कारण विशेष रूप से शहरी क्षेत्रों के कार्यबल में महिलाओं की संख्या घट जाती है, जबकि विवाहित पुरुषों की भागीदारी दर अधिक रहती है। समाजशास्त्री बताते हैं कि जैसे-जैसे महिलाएं सामाजिक-आर्थिक रूप से प्रगति करती हैं, वे कामकाज और घर दोनों की असंभव मांगों में संतुलन नहीं बनाने का निर्णय ले सकती हैं। जबकि पुरुषों से परम्परागत रूप से घर चलाने की उम्मीद की जाती है, ऐसे में उनके सामने काम करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं रह जाता है। रीना ने वास्तव में हमें बताया है कि उनके पास अपने बेटे को काम पर लाने के अलावा कोई चारा नहीं था, क्योंकि न तो उनके माता-पिता और न ही उनके ससुराल वाले जीवित हैं, जिनकी वे मदद ले सकें। उनके पति सीआरपीएफ कांस्टेबल हैं और जम्मू-कश्मीर में तैनात हैं। इसीलिए वे भीड़-भाड़ वाली जगह पर काम पर जाते समय अपने साथ दलिया, दूध, नैपी और कम्बल लेकर जाती हैं। उन्हें काम पर देखकर हमें एहसास होना चाहिए कि भारत के विशेषाधिकार-प्राप्त और एलीट हलकों में वर्क-लाइफ बैलेंस या सप्ताह में काम के घंटों को लेकर जो बहसें चलती रहती हैं, वे कितनी आधारहीन हैं। रीना को वह सब कितना निरर्थक और उनकी वास्तविकता से दूर लगता होगा। जहां हमें रीना की हिम्मत, साहस और शालीनता की सराहना करनी चाहिए, वहीं हमें इस स्थिति को आदर्श के रूप में नहीं देखना चाहिए। एक पल के लिए कल्पना करें कि भगदड़ तब होती, जब रीना अपने बच्चे के साथ प्लेटफॉर्म पर थीं। अगर वे किसी यात्री को बचाने के प्रयास करतीं तो अपने बच्चे की जान जोखिम में डाल सकती थीं; और अगर वे ऐसा नहीं करतीं तो अपनी ड्यूटी अच्छे से नहीं कर रही होतीं। लेकिन उन्हें ऐसी किसी स्थिति में होना ही नहीं चाहिए, जहां उन्हें ऐसे निर्णय लेना पड़े। रीना जैसी महिलाएं जिन स्थितियों में काम करती हैं, वहां वे अपनी वास्तविक क्षमता को प्रदर्शित नहीं कर पाती हैं। जब हम उनकी ‘सुपर मॉम’ के रूप में प्रशंसा करते हैं तो यह भी सुनिश्चित कर रहे होते हैं कि हालात में कोई बदलाव न हों। (ये लेखिका के अपने विचार हैं।)