अर्घ्य सेनगुप्ता और देबर्घ रॉय का कॉलम:जनजातियों के बच्चे किस भाषा में अपनी पढ़ाई करें?

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महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के घने जंगलों में हर सुबह की शुरुआत बच्चों द्वारा पारम्परिक गोंडी गीतों के साथ होती है। उनकी आवाज स्कूल के सभागार को परम्परागत ज्ञान से गुंजा देती है। लेकिन अब उस पर अस्तित्व का खतरा है। राज्य का एकमात्र गोंडी-माध्यम विद्यालय- जो कि पंद्रह ग्राम सभाओं द्वारा जमीनी स्तर पर की गई पहल है- आज पारम्परिक ज्ञान और आधुनिक नौकरशाही के दो पाटों के बीच पिस रहा है।इस मौजूदा संघर्ष के पीछे एक तकलीफदेह ऐतिहासिक विरासत है। ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने ऐसी शिक्षा प्रणाली शुरू की, जिसने गोंड जनजातियों को सांस्कृतिक विस्थापन के लिए मजबूर किया। दुर्भाग्य से यह परिपाटी स्वतंत्रता के बाद भी जारी रही। पीढ़ियों से, गढ़चिरौली में गोंड परिवारों को अपने बच्चों को मराठी-माध्यम के स्कूलों में दाखिला लेने के लिए मजबूर किया जाता रहा है। यह भाषाई बाधा न केवल उनके सीखने में अड़चन डालती है, बल्कि एक गहरा सांस्कृतिक अलगाव भी रचती है। इन सरकारी स्कूलों के पाठ्यक्रम में आदिवासी भाषाओं, संस्कृतियों, त्योहारों या इतिहास पर रत्तीमात्र ही बात की जाती है। शिक्षा के माध्यम से सांस्कृतिक पहचान के इस व्यवस्थित क्षरण ने युवा पीढ़ियों को अपनी भाषा व परम्पराओं से दूर कर दिया है, जिससे उनकी अनूठी ज्ञान-प्रणालियों के अस्तित्व पर खतरा पैदा हो गया है। पारम्परिक कोया ज्ञानबोध संस्कार "गोटुल' इस प्रणालीगत विलोपन की प्रतिक्रिया के रूप में उभरा। गोंड समुदाय के पारम्परिक शिक्षण स्थानों को गोटुल कहते हैं। झोपड़ी जैसी संरचनाओं में संचालित होने वाला यह स्कूल परम्परागत और आधुनिक शिक्षा का अभिनव मिश्रण दर्शाता है। गोंड समुदाय तेंदू पत्तों के संग्रह से मिली आय के जरिए स्कूल को वित्तपोषित करता है, जबकि जनजाति के भीतर से चुने गए शिक्षकों को छत्तीसगढ़ के एक स्कूल में गोंडी भाषा शिक्षण में विशेष प्रशिक्षण दिया जाता है। स्कूल का पाठ्यक्रम महाराष्ट्र राज्य बोर्ड की सामग्री को सरलता से अनुकूलित करता है, लेकिन माध्यम-भाषा गोंडी ही रहती है। गणित और विज्ञान जैसे विषयों के लिए अंग्रेजी का उपयोग किया जाता है। वर्ष 2022 में, राज्य शिक्षा विभाग ने स्कूल को कारण बताओ नोटिस जारी किया था। उस पर शिक्षा के अधिकार (आरटीई) अधिनियम की मंजूरी के बिना संचालन के लिए जुर्माने की चेतावनी दी गई थी। लेकिन इस नोटिस का कानूनी आधार मजबूत नहीं है। आरटीई अधिनियम की धारा 18 के अनुसार स्कूलों को शिक्षा विभाग द्वारा मान्यता प्राप्त होना चाहिए, लेकिन यह नियम सरकार या स्थानीय संस्थाओं द्वारा संचालित स्कूलों पर लागू नहीं होता, जिन्हें अपने स्वयं के स्कूलों का प्रबंधन करने का अधिकार है। इसके अलावा गढ़चिरौली जैसे अनुसूचित क्षेत्रों में- जहां यह स्कूल स्थित है- ग्राम सभाओं को स्थानीय परम्पराओं, संस्कृति और संसाधनों की रक्षा करने का अधिकार है। इसमें अपनी सांस्कृतिक विरासत को दर्शाने वाले पाठ्यक्रम के साथ अपना स्कूल चलाना भी शामिल है। लेकिन यह मामला एक बड़ी समस्या को उजागर करता है। आरटीई अधिनियम द्वारा निर्धारित मानदंडों और मानकों के नियम ग्राम सभा के अपनी परम्पराओं की रक्षा करने और स्थानीय रीति-रिवाजों के आधार पर शिक्षा का संचालन करने के कानूनी अधिकार से टकराते हैं। शिक्षा विभाग का तर्क है कि आरटीई अधिनियम के तहत मान्यता प्राप्त स्कूल ही छात्रों को मध्याह्न भोजन, नि:शुल्क किताबें, गणवेश और नियमित शिक्षकों जैसे लाभ प्रदान कर सकते हैं। जबकि राज्य को किसी बच्चे को मध्याह्न भोजन प्रदान करने से स्कूल को रोकने का कोई अधिकार नहीं है। यह पूरी तरह से दो नागरिकों के बीच का निजी मामला है। गोंड समुदाय को प्रतिकूल विकल्पों के लिए मजबूर करने के बजाय राज्य को इस मामले में हस्तक्षेप करना चाहिए। अगर पारम्परिक ज्ञान-प्रणालियों का सम्मान करते हुए और भाषाई स्वायत्तता को बनाए रखते हुए शिक्षा प्रदान नहीं कर सकते तो किसी को ऐसा करने से रोकना भी नहीं चाहिए। यह मामला बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच में न्यायिक हस्तक्षेप का इंतजार कर रहा है। लेकिन यह एक स्कूल के अस्तित्व से कहीं बढ़कर एक समुदाय के सांस्कृतिक संरक्षण के लिए संघर्ष का मामला है। गोंड समुदाय को प्रतिकूल विकल्पों के लिए मजबूर करने के बजाय राज्य को हस्तक्षेप करना चाहिए। अगर पारम्परिक ज्ञान-प्रणालियों का सम्मान करते हुए शिक्षा प्रदान नहीं कर सकते तो किसी को ऐसा करने से रोकना भी नहीं चाहिए। (ये लेखकों के अपने विचार हैं)