राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जैसे ही आपका संपर्क बढ़ने लगता है आपको उनके अधिकारियों-स्वयंसेवकों से बातचीत में संगठन की शब्दावली के कुछ शब्द मिलने लगते हैं. ऐसे में उनको लेकर जिज्ञासा भी होती है. संघ में दशकों तक एक शब्द प्रचलन में रहा ओटीसी. दिलचस्प बात है कि बहुतों को अब भी इसका अर्थ नहीं पता होगा. लेकिन ये पता होगा कि गर्मियों में संघ के जो प्रशिक्षण शिविर लगते हैं, ये शब्द उनके लिए बोला जाता रहा है. हालांकि 1950 के दशक से ही इसका नाम संघ शिक्षा वर्ग यानी (एसएसवी) हो गया है. लेकिन ओटीसी बोलने वाले अभी भी वही बोलते हैं.संघ के इन प्रशिक्षण शिविरों को इतिहास में दो ही बार रोका गया है, एक बार तब जब 1948 में संघ पर प्रतिबंध लगाया गया और दूसरी बार 1975 में जब इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी का ऐलान किया था. हालांकि, 2 साल तक कोरोना के चलते भी संघ शिक्षा वर्ग नहीं हो पाए थे. 1927 में पहली बार ये तय किया गया कि सभी स्वयंसेवकों के लिए एक प्रशिक्षण शिविर लगाया जाए, ताकि घर से दूर रहकर वो संघ के बारे में ज्यादा से ज्यादा जान सकें. इसके लिए गर्मियों की छुट्टियों के दिन रखे गए, यानी 1 मई से 10 जून तक पूरे 40 दिन. इसकी वजह ये थी कि उस वक्त ज्यादातर स्वयंसेवक युवा ही थे, छात्र थे, सो गर्मियों की छुट्टियों में उनका समय मिल सकता था.Advertisementडॉक्टर हेडगेवार ने ऐसे की थी संघ के प्रशिक्षण शिविरों की शुरुआत (Photo: AI-Generated) ये अलग बात है कि 40 दिन का ये समय अब लगभग आधा रह गया है. तब इस शिविर का नाम होता था, ग्रीष्मकालीन शिविर या समर कैम्प, लेकिन बाद में इसका नाम पड़ गया ‘ऑफिसर ट्रेनिंग कैम्प’ यानी ओटीसी. तब से आधिकारिक ना होने के बावजूद दशकों से यही नाम चलता आ रहा है. हालांकि संघ की आपसी बातचीत में बताया जाता है कि मैं प्रथम वर्ष शिक्षित हूं या द्वितीय वर्ष शिक्षित. तीसरे साल जो इस शिविर में भाग लेता है, उसे नागपुर जाना पड़ता है और आम तौर पर ये प्रचारकों के लिए होता है.यहां पढ़ें: RSS के सौ साल से जुड़ी इस विशेष सीरीज की हर कहानी कैसे लगते हैं संघ के प्रशिक्षण कैंप?संघ ने अपनी सुविधा के हिसाब से कुछ ऐसे प्रांत भी बनाए हुए हैं, जो प्रशासनिक रूप से अस्तित्व में नहीं हैं. ऐसे करीब 45 प्रांतों में अपने अपने प्रांत का प्रथम वर्ष का वर्ग लगता है. जबकि द्वितीय वर्ष वालों के लिए क्षेत्रीय स्तर पर वर्ग लगता है, जिसमें कई प्रांतों के समूह बना दिए जाते हैं. और तीसरे वर्ष का वर्ग हमेशा नागपुर में होता है, जहां सीधे सरसंघचालक और देश की किसी महान विभूति का बौद्धिक निर्देशन मिलता है. इस तरह पहले साल के वर्ग में स्वयंसेवकों का अपने पड़ोसी जिलों के साथियों से परिचय होता है. दूसरे वर्ष के वर्ग में साथी प्रांतों को सहयोगियों के साथ रहने को मिलता है और तीसरे वर्ष के वर्ग में पूरे देश के साथी स्वयंसेवकों से मिलने का अवसर मिलता है. इन वर्गों में भाग लेने वाले स्वयंसेवक ये अनुभव कभी भूल नहीं पाते हैं, खासतौर पर आखिरी दिनों में चक्रव्यूह जैसे महाखेल और पथसंचलन में पूरे शहर का उनके स्वागत के लिए उमड़ आना. एक बार डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने कहा था कि, “ये शिविर उन स्वयंसेवकों के लिए हैं, जिनको भविष्य में संघ का काम आगे बढ़ाना है, हम इन शिविरों के जरिए विशेष योग्यता वाले कार्यकर्ता तैयार करते हैं”. शुरुआती स्वयंसेवक क्योंकि अखाड़ों से भी थे, सो शारीरिक प्रशिक्षण की गतिविधियां इन शिविरों में ज्यादा थीं. यूं भी इनके मुख्य प्रशिक्षक पूर्व सैनिक थे, सो उनकी ट्रेनिंग और कमांड पर अंग्रेजी असर भी था, लेकिन 1939-40 से अंग्रेजी शब्दों को पूरी तरह हटा दिया गया था. नागपुर में ऐसा पहला वर्ग जब लगा तो 17 स्वयंसेवकों ने इसमें भाग लिया था. ये मई के महीने में लगा था, सुबह और शाम का समय शारीरिक प्रशिक्षण, खेलों आदि के लिए होता था और दोपहर के समय में बौद्धिक चर्चाएं होती थीं. तैराकी के लिए भी वक्त रखा जाता था और जगह चुनी गई थी मोहिते का वाड़ा. 1935 में ऐसा दूसरा वर्ग जब पुणे में लगना शुरू हुआ तो उसकी तारीखें 22 अप्रैल से 2 जून तक तय की गईं. ऐसे में डॉ. हेडगेवार 15 मई तक पुणे के वर्ग में रुकते थे और उसके बाद नागपुर के वर्ग में आ जाते थे. 1938 में पहली बार ऐसा वर्ग लाहौर में भी शुरू हुआ. हर वर्ग में डॉ हेडगेवार खुद हर स्वयंसेवक से मिलते थे और एक आत्मीयता कायम करते थे. उन्हें देश भर में संघ के काम को बढ़ाने के लिए नेतृत्व जो तैयार करना था. दिलचस्प बात ये भी है कि इन्हीं वर्गों में गांधीजी से लेकर बाबा साहब अम्बेडकर तक तमाम हस्तियां आईं और स्वयंसेवकों के इस समर्पण, लगन और बिना किसी भेदभाव के हर कार्य एक साथ करने को लेकर काफी कुछ लिखा-बोला. शाखाओं से चुने गए स्वयंसेवकों को वर्ग से किसी दूसरे गांव में कुछ समय के लिए नई शाखा लगाने के लिए भी भेज दिया जाता था और जब शाखा की जिम्मेदारी लेने वाला कोई स्थानीय युवा तैयार हो जाता था, उन्हें वापस बुला लिया जाता था. धीरे-धीरे संघ ने इस वर्ग के अलावा अन्य वर्गों की भी योजना बनाई, जैसे 40 से 60 साल वाले वरिष्ठ स्वयंसेवकों के लिए दो साल में एक बार संघ शिक्षा वर्ग शुरू किया गया. उसके बाद शुरुआती स्तर के स्वयंसेवकों के लिए प्राथमिक संघ शिक्षा वर्ग की भी शुरूआत की गई, ताकि संघ शिक्षा वर्ग के लिए उनमें से प्रशिक्षित स्वयंसेवकों को चुना जा सके. शारीरिक प्रशिक्षण, बौद्धिक चर्चाएं, सांस्कृतिक कार्यक्रम, खेल, नियुद्ध जैसे तमाम कार्यक्रम इन शिक्षा वर्गों का हिस्सा रहते आए हैं, जो अब 7 दिन का है. लेकिन अब इससे भी पहले एक और वर्ग शुरू कर दिया गया है, वो केवल 3 दिन का है, एकदम नए वालों के लिए.कुछ और वर्ग भी तहसील, नगर, जिला या विभाग स्तर पर एक या तीन दिन के लगते हैं. जैसे दिसम्बर में एक तीन दिवसीय शीतकालीन वर्ग लगता है, एक दिन का एक निवासी वर्ग भी होता है. Advertisementबड़े वर्गों में तो सब कुछ होता है, लेकिन बौद्धिक और शारीरिक के अलग-अलग वर्ग भी नगर या जिलों में होते हैं. कुछ वर्ग विशेष विषयों पर भी आयोजित होते हैं, जैसे घोष वर्ग में वादन और वाद्य यंत्र बजाने पर ही चर्चा होती है, तो दंड वर्ग में केवल दंड प्रशिक्षण होता है. संघ की प्रार्थना का भी लयबद्ध गायन कैसे हो, किस तरह शुद्ध ढंग से गाया जाए, उसका भी अलग से एक वर्ग होता है. संघ का प्रचार विभाग भी अलग से पत्र पत्रिकाओं में लिखने वालों के लिए चर्चा हेतु छोटे-छोटे, एक-दो दिन के वर्ग आयोजित करने लगा है. यूं कभी भी सहभोज आयोजित कर लिए जाते हैं, अपने-अपने घर से भोजन लाइए और सब मिलकर खाइए, साथ में चर्चा कीजिए. बदलते दौर का असर भी पड़ा है. प्रथम वर्ष का जो वर्ग होता था, तब 40 दिन का था, आजकल केवल 15 दिन का रह गया है. द्वितीय वर्ष वर्ग जो 30 दिन का था, अब 20 दिन का रह गया है. जबकि नागपुर में होने वाला तृतीय वर्ष वर्ग 40 दिन से घटकर अब 25 दिन का रह गया है. दुनिया भर में एक विशेष दिन नो गैजेट्स डे, नो टीवी डे मनाने का आव्हान होता है, ऐसे में 25 दिन तक बिना गजेट्स के रहना आसान है क्या?Advertisementडॉक्टर हेडगेवार के अंतिम शिक्षा वर्ग ने स्वयंसेवकों को कर दिया था भावुक (Photo: AI-Generated) डॉ. हेडगेवार का अंतिम संघ शिक्षा वर्गसंघ के पुराने लोग 1940 के संघ शिक्षा वर्गों को कभी नहीं भूल पाते. डॉ हेडगेवार उन दिनों काफी बीमार थे, फिर भी अप्रैल में पुणे के वर्ग में गए. पूरे वर्ग में रहे, हालांकि काफी परेशान भी रहे. भाषण भी 2 घंटे तक कुर्सी पर बैठे-बैठे दिया. फिर नागपुर आए, वर्ग में ही ठहरे लेकिन तेज बुखार के चलते डॉक्टर्स की सलाह पर घर लाया गया. शरीर में ज्वर था लेकिन मन में ज्वार कि मुस्लिम लीग पाकिस्तान की मांग कर रही है, इस मुद्दे पर चर्चा होनी चाहिए, रणनीति बनानी चाहिए. दूसरा विश्व युद्ध छिड़ चुका है, ये भी एक चिंता थी. ये पहली बार था कि प्रशिक्षण वर्ग लगा हुआ था और वो खुद वहां नहीं थे. बड़ी मुश्किल से ड़ॉक्टर्स ने उन्हें 9 जून को समापन कार्यक्रम में बोलने की अनुमति दी. देश भर से आए स्वयंसेवक भावुक थे, उन्हें अंत में ये कहकर डॉ. हेडगवार ने और भावुक कर दिया कि "मैं आप लोगों की कुछ भी सेवा ना कर सका”. सभी की आंखें भर आईं. 12 दिन बाद डॉ हेडगेवार गुरु गोलवलकर को सरसंघचालक की जिम्मेदारी सौंप कर इस दुनिया से चले गए.Advertisement पिछली कहानी: पहली गुरुदक्षिणा की कहानी, आखिर चंदा क्यों नहीं लेता आरएसएस?---- समाप्त ----