महाभारत कथाः नागों को क्यों उनकी मां ने ही दिया अग्नि में भस्म होने का श्राप?

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महाभारत की कथा को सिर्फ एक महान युद्ध की कथा समझना इसके मर्म को सीमित कर देना है. असल में 18 दिनों का युद्ध तो इस महान गाथा का सिर्फ एक चर्चित और प्रसिद्ध भाग है, संपूर्ण महाभारत नहीं, लेकिन इस ग्रंथ का पूरा मर्म यह है कि कैसे हमारे आचरण की छोटी-छोटी गलतियां, हमारा अहंकार, जाने-अनजाने में हुए हमारे पाप आगे जाकर विनाश का कारण बनते हैं. यह सिर्फ एक पीढ़ी, एक शताब्दी या एक युग की बात नहीं है, कर्म के बंधन में बंधा मनुष्य युगों तक इसके फल को भोगता ही है. यह कथा यह भी बताती है कि मनुष्य अकेला ऐसा प्राणी है जो अपने ही कर्मों से देव भी बन सकता है और दानव भी, लेकिन आखिरी विकल्प उसके ही अपने हाथों में है. अपने ही कर्मों पर निर्भर है.नैमिषारण्य तीर्थ में ऋषियों के जमघट के बीच जब ऋषि उग्रश्रवा ने महाभारत की कथा सुनानी शुरू की, तब ऋषियों ने जिज्ञासा में आकर उनसे कई प्रश्न पूछे. इन प्रश्नों का उत्तर देते हुए कथावाचक उग्रश्रवा सौति ने उन्हें क्रम से सभी घटनाओं की जानकारी दी. जनमेजय के शोक का कारण बताया. सर्पयज्ञ की वजह बताई, सर्पों का जन्म कैसे हुआ और सागर मंथन से उच्चैश्रवा घोड़ा कैसे उत्पन्न हुआ यह सारी कथा कही. फिर उन्होंने एक और रहस्य की बात कही.सूतनंदन उग्रश्रवाजी ने कहा समुद्र मंथन से निकला यही उच्चैश्रवा घोड़ा नागों के श्राप की वजह बना, जिससे उन्हें जनमेजय के सर्प यज्ञ में भस्म हो जाना पड़ा. तब ऋषियों ने उनसे प्रश्न किया कि हे उग्रश्रवा जी, सर्पों को किसने ऐसा श्राप दिया और उच्चैश्रवा जैसा दिव्य घोड़ा श्राप की वजह कैसे बन गया?उग्रश्रवा जी बोले- ऋषियों मैंने आपको कश्यप ऋषि की दो पत्नियों कद्रू और विनता के बारे में बताया था. कद्रू ने ऋषि से 1000 नाग पुत्रों का वरदान पाया. विनता ने दो शीलवान और बलिष्ठ पुत्र मांगे. समय आने पर कद्रू के गर्भ अंड से 1000 सांप जन्मे, लेकिन विनता के दोनों अंडे वैसे के वैसे ही बने रहे. तब विनता ने उत्सुकता में एक अंडा फोड़ दिया. उसमें से एक अविकसित शिशु निकला, जिसका ऊपरी हिस्सा तो बलिष्ठ था, लेकिन पैर पूरी तरह नहीं बन सके थे. वह शिशु जन्म लेते ही बड़ा हो गया और आकाश में उड़ते हुए विनता को श्रापित कर गया कि 'जिस सौतिया डाह में तूने मुझे असमय ही जन्म लेने पर मजबूर कर दिया है, तू उसी सौतन की दासी बन जाएगी.' फिर उस शिशु ने कहा कि 'अगले अंडे के फूटने की प्रतीक्षा करना, क्योंकि यह पुत्र तुम्हें दासी के श्राप से मुक्ति दिलाएगा.' समय आने पर विनता के दूसरे गर्भ अंड से पक्षीराज गरुण का जन्म हुआ. पहले वाला शिशु अरुण कहलाता है जो सूर्यदेव के रथ का सारथि है.इस बात को कई दिन बीत गए. एक दिन संध्या के समय दोनों बहनें कद्रू और विनता टहल रही थीं. उसी समय आकाश में उच्चैश्रवा घोड़ा दिखा. कद्रू ने विनता से पूछा, इंद्र के घोड़े उच्चैश्रवा का रंग काला है या सफेद? विनता ने कहा, सफेद है, लेकिन कद्रू अड़ गई और बोली- जरूर यह घोड़ा सफेद है, लेकिन ध्यान से देखो. इसकी पूंछ काली है. विनता ने कहा- नहीं ऐसा नहीं है. यह घोड़ा पूर्णिमा का चंद्र की तरह संपूर्ण शुभ्र (यानी सफेद) है.इस बात का निर्णय करने के लिए कद्रू ने कहा- चलो चलकर देख आते हैं, लेकिन उसने शर्त रख दी कि जो हारेगा, उसे दासी बनकर रहना पड़ेगा. अब इंद्र के घोड़े उच्चैश्रवा की पूंछ का रंग देखने की बात में दोनों बहनों ने बड़े ही आवेश में वह रात गुजारी. दूसरी ओर शर्त जीतने के लिए कद्रू ने अपने 1000 नाग बेटों को बुलाया और उनसे कहा, तुम सुबह से पहले ही जाकर उच्चैश्रवा की पूंछ में लिपट जाना, ताकि वह काली लगे और मैं शर्त जीत जाऊंगी.सर्प जो कि पहले ही अपने अहंकार में किसी का आदर नहीं कर रहे थे, उन्होंने मां की बात नहीं सुनी और कद्रू को मना कर दिया. तब गुस्से में आई कद्रू ने न जाने किस सोच में यह कह दिया कि तुम सबको अग्नि में भस्म हो जाना पड़ेगा. उधर ब्रह्मदेव ने जब इस श्राप को सुना तो वह चकित रह गए, फिर उन्हें कालचक्र को प्रणाम करते हुए कहा किया यह ठीक ही हुआ. वैसे भी सर्प अपने बल के घमंड में बहुत उत्पाती होने लगे थे और फिर भविष्य में इनकी संख्या भी इतनी बढ़ जाएगी कि यह दूसरों को अकारण ही पीड़ा देंगे. ऐसे में यह ठीक ही हुआ, वैसे भी मां की बात न मानने वाले भस्म हो ही जाते हैं.अब मां से इस तरह श्रापित होकर सभी सर्पों ने आपस में बैठक की और कहा- मां को हमने नाराज किया इसलिए ही उसने ऐसा श्राप दिया. चलो हम उन्हें प्रसन्न करने के लिए उच्चैश्रवा घोड़े की पूंछ में लिपट जाते हैं और उसे काला बना देते हैं, ताकि दूर से घोड़े की पूंछ काली दिखे. मां शर्त जीतेंगी तो हो सकता है कि वह हमें दिया श्राप वापस ले लेंगी. इस तरह सांपों ने मां के छल में साथ दिया और कर्कोटक नाम का सर्प उस घोड़े की पूंछ में जाकर लिपट गया और उसे काला बना दिया.अगले दिन कद्रू ने विनता को दिखाया यह घोड़ा सफेद है, लेकिन इसकी पूंछ काली है. शर्त के अनुसार विनता हार गई और उसे कद्रू की दासता में रहना पड़ा. गरुड़ को भी अपनी मां के साथ उन सब सर्पों की सेवा करनी पड़ती थी. वह उन्हें अपनी बलवान पीठ पर बिठाकर रोमांचक द्वीपों की यात्रा कराते थे. एक दिन गरुड़ ने अपनी मां से पूछा कि 'मां, तुम्हारा यह बेटा इतना बलवान है, फिर भी तुम्हें इन सबकी दासता में रहना पड़ता है. इस पर मां विनता ने कद्रू के सौतपन से कपटपूर्ण व्यवहार को बताया. यह सुनकर गरुड़ ने अपनी मां से उस दासता से मुक्त होने का उपाय पूछा. इस पर विनता ने कहा कि यह तो तुम्हें उनसे ही पता चलेगा.मां से आज्ञा लेकर गरुण एक दिन नागमाता कद्रू से मिले और सर्पों से भी बात की. उन्होंने पूछा- ‘मैं तुम्हें क्या लाकर दूं? जिससे मुझे और मेरी माता को तुम्हारी दासता से छुटकारा मिल जाए?’ गरुड़ की यह बात सुनकर सर्पों ने कहा, ‘गरुड़! तुम हमारे लिए अमृत ला दो तो तुम्हारी मां दासी भाव से मुक्त हो जाएगी.'यह सुनकर गरुण अपने पिता ऋषि कश्यप के पास पहुंचा और उनसे अमृत का पता पूछा. ऋषि कश्यप ने बताया कि अमृत स्वर्ग लोक में अमृत सरोवर के बीच स्थित है. इसकी रक्षा देवता खुद करते हैं. यह सुनकर गरुड़ अमृत सरोवर के पास पहुंचा तो अमृत की रक्षा करते हुए महाकाय देवों और अमृत कलश के चारों ओर घूमते हुए चक्र को देखकर वह हैरान हो गया. उसने सोचा कि ये देव और चक्र देवराज इंद्र ने अमृत कलश की सुरक्षा के लिए लगाए हुए है. चक्र में फंसकर मेरे पंख कट सकते है. इसलिए मैं बहुत छोटा रूप धारण कर इसके मध्य में प्रवेश करूंगा.गरुड़ को देखकर एक देव ने उस पर हमला किया, लेकिन गरुण ने उसे घायल कर पराजित कर दिया. इसके बाद गरुड़ ने अमृत कलश पंजो में दबाया और वापस उड़ गया. इधर, यह सुनकर इंद्र अपनी देव सेना की एक टुकड़ी के साथ वज्र उठाए गरुड़ की खोज में निकल पड़े. आकाश मार्ग में उड़ते हुए शीघ्र ही उन्होंने गरुड़ को देख लिया और अपना वज्र चला दिया. इंद्र के वज्र का गरुड़ पर कोई असर न हुआ, लेकिन गरुड़ ने इंद्र के वज्र के सम्मान में अपने डैनों से सिर्फ एक पंख हानि के रूप में नीचे गिरा दिया. एक पंख गिरने भर से गरुड़ को सुपर्ण नाम मिला.उधर, भगवान विष्णु ने देखा कि गरुड़ ने अमृत जीत लिया है, लेकिन कई मौके मिलने के बाद भी उसका पान नहीं किया है और उसमें अमृत पीने का कोई लालच भी नहीं है. यह देख वह गरुड़ के सामने प्रकट हुए और बोले- गरुड़ मैं तुम पर प्रसन्न हों, तुम लोभी नहीं हो. मौका होने के बाद भी तुमने अमृत पान नहीं किया. मैं तुम्हें वर देना चाहता हूं- मांगों.उग्रश्रवाजी ने कथा सुनाते हुए कहा- भगवान विष्णु को सामने देखकर गरुड़ ने उन्हें प्रणाम किया और वरदान मांगा, पहला तो मैं आपके हर चिह्न में शामिल रहूं. आपकी ध्वजा में निवास करूं. आपके स्थानों का प्रहरी बनूं और दूसरा यह कि आप मुझे देवताओं के लिए सुलभ अमरता बिना अमृत पान के ही दे दीजिए, ताकि अजर-अमर होकर आपकी सेवा करूं. भगवान विष्णु ने कहा-तथास्तु. ऐसा होगा. ये वरदान पाने के बाद से गरुण भगवान विष्णु के चिह्न, ध्वजा, निवास के प्रहरी आदि सभी कुछ हैं.अब गरुड़ ने कहा- मैं भी आपको वर देना चाहता हूं. आप भी मुझसे मांग लीजिए. यहां लोगों को लग सकता है कि भक्त भगवान को वरदान कैसे दे रहा है? असल में यही सनातन की खूबी है, यहां न भक्त बड़ा है और न ही भगवान. दोनों की भावना ही बड़ी है. गरुड़ ने जो वरदान देने की बात कही, असल में वह उसे ही वरदान मिला. भगवान विष्णु ने कहा- तुम मेरे वाहन बन जाओ. गरुड़ ने यह सहर्ष ही स्वीकार कर लिया. अब वह विष्णु वाहन नाम से भी जाना जाने लगा. इस तरह गरुड़ के तीन नाम और हैं. विनता का पुत्र- वैनतेय, सुपर्ण और विष्णु वाहन.उधर, यह सब देख इंद्र सोचने लगे- 'यह तो महान पराक्रमी है. मेरे वज्र का इस पर जरा भी असर नहीं हुआ. जबकि मेरे वज्र के प्रहार से पहाड़ तक टूट के चूर्ण बन जाते है. ऐसे पराक्रमी को शत्रुता से नहीं मित्रता से काबू में करना चाहिए और इस पर भगवान विष्णु की भी कृपा हो गई है. यह सोचकर इंद्र ने गरुड़ से कहा- 'पक्षीराज ! मैं तुम्हारी वीरता से बहुत प्रभावित हुआ हूं. इस अमृत कलश को मुझे सौंप दो और बदले में जो भी वर मांगना चाहते हो मांग लो.' गरुड़ बोला- 'यह अमृत मैं अपने लिए नहीं, अपनी माता को दासता से मुक्त कराने के लिए नाग माता को देने के लिए ले जा रहा हूं. à¤‡à¤¸à¤²à¤¿à¤ यह कलश मैं तुम्हे नहीं दूंगा.' इंद्र बोले- 'ठीक है, इस समय तुम कलश ले जाकर नाग माता को सौंप दो किन्तु उन्हें इसे प्रयोग मत करने देना. उचित मौका देखकर मैं वहां से यह कलश गायब कर दूंगा.' गरुड़ बोला, 'अगर मैं तुम्हारी बात को मान लूं तो मुझे बदले में क्या मिलेगा ?' इंद्र बोले- 'तुम्हारा मनपसंद भरपेट भोजन. तब मैं तुम्हे इन्हीं नागों को खाने की इजाजत दे दूंगा.' यह सुनकर गरुड़ अमृत कलश लेकर कद्रु के पास पहुंचा और कुश के आसन पर रख दिया. इसके बाद वह बोला- 'माता ! अपनी प्रतिज्ञानुसार मैं अमृत कलश ले आया हूं. अब आप अपने वचन से मेरी माता को दासता से मुक्त कर दे.'कद्रु ने उसी क्षण विनता को वचन से मुक्त कर दिया और अगली सुबह अमृत नागों को पिलाने का निश्चय कर वहां से चली गई. रात को उचित मौका देखकर इंद्र ने अमृत कलश उठा लिया और वापस स्वर्ग ले गए. दूसरे दिन सुबह नाग जब वहां पहुंचे तो अमृत कलश गायब देखकर दुखी हुए. उन्होंने उस कुश आसन को चाटना शुरू कर दिया कि उनकी जीभ दो हिस्सों में फट गई. तब से सर्पों की जीभ दो भागों में बंटी दिखाई देती है. उधर, गरुड़ के भगवान विष्णु की सेवा में जाते ही देवता भयमुक्त हो गए.यह कथा सुनाकर उग्रश्रवा जी ने ऋषियों से कहा- ऋषिगण! इसीलिए माता के आशीर्वाद को सबसे महान माना गया है. वरदान और श्राप, सृजन और विनाश दोनों ही उसकी गोद में झूलते हैं. नागों ने अपनी माता से अग्नि में भस्म होने का श्राप पाया और समय आने पर उन्हें जनमेजय के नाग यज्ञ में भस्म होना ही पड़ा.पहला भाग : à¤•ैसे लिखी गई महाभारत की महागाथा? 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