बिहार चुनावों में 3 नवम्बर तक 42 करोड़ रु. की शराब, 24 करोड़ की ड्रग्स, 5.8 करोड़ के सोना-चांदी और 9.62 करोड़ नगदी जब्त हुई थी। लेकिन सोशल मीडिया, एआई और डीप-फेक के संगठित अवैध इस्तेमाल के खिलाफ ठोस कार्रवाई का कोई आंकड़ा नहीं है। सिर्फ एआई के दम पर एनवीडिया कम्पनी की वैल्यू 50 खरब डॉलर हो गई है, जो भारत की जीडीपी से भी ज्यादा है। वॉट्सएप और यूपीआई ने टेलीग्राम, पोस्टकार्ड, रजिस्टर्ड पोस्ट, पीसीओ और मनीऑर्डर की दुकान को बंद कर दिया है। लेकिन अप्रासंगिक हो चुके परम्परागत माध्यमों की कथित ‘मुस्तैद’ निगरानी और सोशल मीडिया की अनदेखी से चुनावों में केंद्रीकरण के साथ विदेशी शक्तियों का हस्तक्षेप बढ़ रहा है। गोविंदाचार्य और अन्य लोगों की तरफ से मैंने चुनाव आयोग में एक प्रतिवेदन दिया था, जिसके अनुसार 25 अक्टूबर 2013 को चुनाव आयोग ने गाइडलाइन जारी की थी। उसके मुताबिक प्रिंट और टीवी की तरह डिजिटल और सोशल मीडिया पर भी चुनावी नियम लागू होने चाहिए। आयोग ने 6 मई 2024 के आदेश में 2013 के पुराने नियमों की पुष्टि की, इसके बावजूद नियमों का पालन नहीं हो रहा। सोशल मीडिया के दम पर लड़े जा रहे चुनावों में मतदान के 48 घंटे पहले साइलेंस पीरियड का नियम अब निरर्थक-सा हो गया है। चुनावों में इन 5 पहलुओं के अनुसार नियम लागू हों तो चुनावी प्रक्रिया ज्यादा स्वतंत्र और निष्पक्ष हो सकती है- 1. विदेशी हस्तक्षेप : कैम्ब्रिज एनालिटिका कम्पनी ने फेसबुक के करोड़ों प्रोफाइल से डेटा लेकर भारत के चुनावों को प्रभावित करने की कोशिश की थी। अमेरिकी सीनेट की खुफिया समिति के सदस्य बेनेट के अनुसार टेक कम्पनियां भारत समेत कई देशों के चुनावों में दुष्प्रचार और हेट न्यूज से लोकतंत्र को हाइजैक करने का प्रयास करती हैं। गरीब वाहन चालकों और छोटे प्रिंटरों पर तो नियमों का डंडा खूब चलता है, पर उसी तरह से टेक कम्पनियों पर नियम लागू हों तो संवैधानिक समानता के साथ चुनाव आयोग का रसूख बढ़ेगा। 2. सोशल मीडिया : मारीच के स्वर्णमृग की तरह मतदाताओं को डिजिटल मायाजाल में फंसाने के लिए नेताओं ने सोशल मीडिया का बेजोड़ नेटवर्क बनाया है। फेसबुक के करोड़ों पेज, वॉट्सएप में लाखों ग्रुप और ट्विटर में हैशटैग के फर्जी ट्रेंड से चुनावी आंधी बनाई जाती है। चुनाव आयोग की अक्टूबर 2013 की गाइडलाइंस के अनुसार नेताओं और उनके समर्थकों के सभी सोशल मीडिया खातों और खर्चों का हिसाब-किताब होना चाहिए, पर उस पर अमल नहीं हो रहा। 3. आईटी सेल : पुराने दौर के चुनावों में लठैतों का दबदबा होता था, जिनकी जगह अब आईटी सेनाओं ने ले ली है। एक अनुमान के अनुसार लगभग 40 लाख लोग नेताओं की सोशल मीडिया टीम और पार्टियों के आईटी सेल से जुड़े हैं। चुनावों के दौरान सोशल मीडिया में झूठ, नफरत, प्रोपगेंडा फैलाने वाले कंटेंट का निर्माण और प्रसारण इन्हीं के द्वारा होता है। कई प्रतिवेदनों के बावजूद आईटी सेनाओं के रजिस्ट्रेशन व माॅनिटरिंग के लिए आयोग ने ठोस कदम नहीं उठाया। 4. काला धन : अक्टूबर 2013 की गाइडलाइंस के अनुसार प्रत्याशियों को सोशल मीडिया के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष खर्चों का हिसाब-किताब देना जरूरी है। सोशल मीडिया में विज्ञापन और प्रमोशन के खर्च का विवरण भी देना चाहिए। उन नियमों का कड़ाई से पालन हो तो अवैध आईटी सेनाओं पर रोक लगने के साथ चुनावों में फेक न्यूज का कारोबार कमजोर होगा। नियमों का विवेकपूर्ण पालन सुनिश्चित करने के बजाय चुनाव आयोग के पर्यवेक्षक चाय, समोसे और फूलमालाओं की गिनती में ही व्यस्त रहते हैं। 5. एआई : चुनाव प्रचार, मतदान और परिणाम प्रभावित करने के लिए एआई कम्पनियां सर्च व ब्राउजिंग हिस्ट्री, क्लाउड डेटा, वीडियो, ऑनलाइन पेमेंट जैसे सैकड़ों तरीकों से डेटा इकट्ठा कर रही हैं। केंद्र सरकार एआई के नियमन के लिए कानून के बजाय सिर्फ विजन डाॅक्यूमेंट बना रही है। एआई के दुरुपयोग को रोकने के लिए चुनाव आयोग ने संविधान के अनुच्छेद-324 और आईटी इंटरमीडियरी नियमों के तहत जो दिशा-निर्देश जारी किए हैं, वे बाध्यकारी हैं। लेकिन इन नियमों का पालन कराने में चुनाव आयोग की मशीनरी विफल हो रही है। एआई से फेक न्यूज और सोशल मीडिया से भ्रामक मुद्दों के प्रसारण से नेतागण नकली चुनावी लहर पैदा करने में माहिर हो गए हैं। प्रिंट और टीवी की तरह डिजिटल और सोशल मीडिया पर भी चुनावी नियम लागू होने चाहिए।(ये लेखक के अपने विचार हैं)