डेरेक ओ ब्रायन का कॉलम:विज्ञापन जगत की हस्तियों के सा​थ मेरी खुशनुमा यादें

Wait 5 sec.

आज मैं विज्ञापन जगत की उन हस्तियों को याद करना चाहता हूं, जिनसे मैं परिचित था और जिनके साथ मैंने काम किया था। सबसे पहले पीयूष पांडे की बात। पीयूष और मैं 1984 से 1991 तक ओगिल्वी में सहकर्मी थे- वे मुंबई में थे, मैं कोलकाता में। 1980 के दशक के मध्य में ओगिल्वी के तत्कालीन एमडी मणि अय्यर ने हम दस लोगों को एक वीकेंड रिट्रीट के लिए चुना था। पीयूष हममें सबसे उम्रदराज थे। अय्यर ने हमें एक अनमोल सलाह दी थी : अपने काम को गम्भीरता से लो, लेकिन खुद को बहुत ज्यादा गम्भीरता से मत लो। रिट्रीट के बाद हममें से नौ लोगों को उन दो विभागों में पदोन्नति मिल गई, जिनमें हम काम करते थे : क्लाइंट सर्विसिंग और क्रिएटिव। एक को क्लाइंट सर्विसिंग से हटाकर एक नया, अजीब-सा पद दिया गया- कॉपी चीफ (भाषाएं)। क्या ही विडम्बना है! जिस आदमी को इधर-उधर धकेला जा रहा था, वे ही फिर आगे चलकर ‘भारत के डेविड ओगिल्वी’ बने। (पांडे, देखो क्या टर्म क्रिएट किया तुम्हारे लिए!) साल 2022। हम दोनों गोवा में थे। तो हमने एक प्लान बनाया। फैट फिश, अर्पोरा में डिनर। राजनीति हमारे मेन्यू में नहीं थी। स्टार्टर के तौर पर थीं ओगिल्वी में बिताए 8 सालों की यादें और पुराने सहकर्मियों के बारे में खुद को अपडेट करना। मेन कोर्स था एक-दूसरे को अपने परिवारों के बारे में बताना। मीठे में हमने जीवन, विरासत और सेहत पर बात की। बस तीन घंटे बीत गए। वह हमारी आखिरी मुलाकात थी। ओगिल्वी में हमारे पूर्व सहयोगी सुमित रॉय कहते हैं : अब हम उस व्यक्ति के बारे में कुछ शब्द कहेंगे, जिन्होंने पीयूष को अपना मंच दिया। ये सुरेश मलिक ही थे, जिन्होंने पीयूष की क्षमता को पहचाना और उन्हें भाषा विभाग का प्रमुख बनाया। उसके बाद से पीयूष ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। मिले सुर मेरा तुम्हारा के साथ उन्होंने पूरे भारत को एक किया। सुरेश का दिल हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में रचा-बसा था। पीयूष का दिल हिंदुस्तान में बसा था। सुरेश मलिक ओगिल्वी में क्रिएटिव डायरेक्टर थे, जिन्होंने फिल्म स्प्रेड द लाइट ऑफ फ्रीडम की कल्पना की थी। इसे 1987 में स्वतंत्रता दिवस पर रिलीज किया गया था। अगले वर्ष, सुरेश एक और बड़ा विचार लेकर आए- एक सुर, जिसका नाम बाद में बदलकर मिले सुर मेरा तुम्हारा कर दिया गया। पीयूष के शब्दों में, हुआ यूं कि मिले सुर सुरेश मलिक का कॉन्सेप्ट था। उन्हें मुझ पर पूरा भरोसा था। मुझे लगता है कि वे क्रिकेट प्रेमी थे, और मुझे पसंद करते थे (पीयूष 1977 और 1979 के बीच रणजी ट्रॉफी में राजस्थान के लिए विकेटकीपर-बल्लेबाज के रूप में भी खेले थे)। इसलिए उन्होंने मुझे अपनी फिल्म के लिए गीत लिखने का मौका दिया। मुंबई में उनके पास कई शीर्ष गीतकार थे, लेकिन उन्होंने मुझे चुना। मैंने पूरा गीत एक दर्जन से ज्यादा बार लिखा, जब तक कि उन्होंने इसे मंजूरी नहीं दे दी। फिर पं. भीमसेन जोशी की आवाज ने कुछ साधारण बोलों को जादू में बदल दिया। ऋतुपर्णो घोष जीनियस थे। दुनिया उन्हें कई पुरस्कार विजेता फिल्मों के निर्देशक के रूप में याद करती है, जिन्होंने ऐश्वर्या राय को चोखेर बाली में निर्देशित किया था। लेकिन उस प्रसिद्धि और ग्लैमर से पहले वे विज्ञापन जगत में थे। वे कोलकाता स्थित रिस्पॉन्स एजेंसी में क्रिएटिव डायरेक्टर थे, जिसकी स्थापना राम राय ने की थी। ऋतु का कार्यालय मेरे कार्यालय से पैदल दूरी पर था। लंच ब्रेक के दौरान वे कभी-कभार ही मिलते थे, लेकिन कभी एक निवाला भी नहीं खाते थे। हमने एक बार अपने वेतनों की भी तुलना की थी : नौ हजार रुपए प्रति माह! ऋतुपर्णो फिल्मों की दुनिया में आने वाले पहले विज्ञापन एग्जीक्यूटिव नहीं थे। डीजे कीमर के कलकत्ता कार्यालय में एक जूनियर विजुअलाइजर थे, जहां वे आगे चलकर कला निर्देशक बने। वे भी विज्ञापन में अपना करियर छोड़कर सर्वकालिक महान फिल्म निर्देशकों में से एक बने थे। जी हां, सत्यजित राय। बाद में, ऋतुपर्णो और मैं दक्षिण कोलकाता के प्रिंस अनवर शाह रोड पर पड़ोसी बन गए। वे बहुत जल्दी चले गए। महज 49 की उम्र में। प्रदीप गुहा और भास्कर दास मुंबई में विज्ञापन/मीडिया जगत के मेरे दो पसंदीदा रॉकस्टार थे। उनकी यादों को संजोने के लिए तो कई कॉलम लगेंगे। मीडिया के ये दो शानदार जादूगर दिल से बंगाली बाबू थे। पुनश्च : विज्ञापन जगत के और भी कई दिग्गज थे, पर मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता था : एलीक पदमसी, सुभाष घोषाल, गेर्सन दा कुन्हा... और भी कई। उन सभी के लिए यही शब्द : रेस्ट इन परफेक्शन (आरआईपी)! मुंबई में कई शीर्ष गीतकार थे, लेकिन सुरेश मलिक ने पीयूष पांडे को चुना। उन्होंने पूरा गीत एक दर्जन से ज्यादा बार लिखा, जब तक कि इसे मंजूरी नहीं मिल गई। फिर भीमसेन जोशी की आवाज ने बोलों को जादू में बदल दिया। (ये लेखक के अपने विचार हैं)