बीसवीं सदी से दुनिया कई वर्दीधारी तानाशाहों को देखती आ रही है। लेकिन पाकिस्तान ने फौजी हुकूमत के जितने नए-नए रूप पेश किए हैं, उतने किसी और देश ने नहीं किए। सबसे ताजा और हैरतअंगेज रूप यह है कि आसिम मुनीर को अगले पांच साल के लिए आर्मी चीफ और चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) नियुक्त करने की अधिसूचना जारी कर दी गई है। यह पाकिस्तानी फौज के इतिहास के हिसाब से भी अविश्वसनीय है। इसे इस तरह देखिए। पिछले 75 वर्षों में पाकिस्तान में 29 वजीर-ए-आजम (प्राइम मिनिस्टर) हुए, लेकिन कोई भी पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया, क्योंकि फौज ने उन्हें ऐसा नहीं करने दिया। लेकिन मुनीर ने मौजूदा प्रधानमंत्री से खुद को पांच साल के लिए सीडीएस नियुक्त करवा लिया। यह एक फौजी तानाशाह की ऐसी खोज है, जिसे टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में टेस्ला या पलानतीर की उपलब्धियों के बराबर माना जा सकता है। पहले तो मुनीर ने शरीफ की हुकूमत को राजी किया कि वह उन्हें उनकी रिटायरमेंट की तारीख से एक दिन पहले सेना अध्यक्ष नियुक्त कर दे, जबकि वर्तमान सेना अध्यक्ष कमर जावेद बाजवा पद पर कायम ही थे। इस तरह पाकिस्तान को दो दिन के लिए दो सेनाध्यक्ष मिल गए थे। मुनीर का तीन साल का कार्यकाल 28 नवंबर को खत्म हुआ तो वे उस दिन रिटायर हो गए, लेकिन एक सप्ताह तक- जब तक कि उन्हें सीडीएस और सेनाध्यक्ष नियुक्त करने की अधिसूचना जारी नहीं हुई- वे फौज के प्रमुख बने रहे। मेरे ख्याल से उन्हें पिछली तारीख से नियुक्त किया गया होगा, वरना कोई भी ऑडिटर बिना किसी नौकरी के एक सप्ताह का वेतन दिए जाने पर आपत्ति करता। बेशक ऐसा करने की हिम्मत कोई बेपरवाह गुस्ताख ऑडिटर ही करेगा। अभी और भी बहुत कुछ जान लीजिए। उन्होंने इमरान खान और उनकी पत्नी को जेल में बंद करके उनकी पार्टी को 2024 का चुनाव लड़ने नहीं दिया और धांधली करके अपनी पसंद के शाहबाज शरीफ को प्रधानमंत्री बना दिया। फिर वे उसी प्रधानमंत्री से खुद को प्रमोट करवा के फील्ड मार्शल बन बैठे और मुल्क के संविधान में 27वां संशोधन करवा के खुद को जीवन भर के लिए फील्ड मार्शल भी बनवा लिया। यही नहीं, सीडीएस को पांच साल के कार्यकाल के साथ सभी सेनाओं का बॉस बनवा लिया और यह भी व्यवस्था करवा ली कि उस पर कोई मुकदमा नहीं चलाया जा सकेगा। सार यह कि जनरल साहब जीवन भर के लिए मुकदमे आदि से मुक्त फील्ड मार्शल बन गए और सेना अध्यक्ष का तीन साल का अपना कार्यकाल पूरा करने के साथ ही पांच साल के लिए सीडीएस बन गए। यह सब एक निर्वाचित प्रधानमंत्री, संसद, संविधान के मार्फत हुआ, जिसमें संशोधन को उन सांसदों ने मंजूर किया, जो विपक्ष-मुक्त चुनाव जीत कर आए हैं। पाकिस्तान के फौजी तानाशाहों के इतिहास में सबसे नया अध्याय उसके संविधान और संसद की मंजूरी से जोड़ा गया है। मानो पाकिस्तान में सर्वोच्च पदों के लिए निर्वाचित दो व्यक्तियों- प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति ने अपनी सियासी मौत के परवाने पर खुद ही दस्तखत कर दिया हो। किसी असैनिक सरकार ने फौजी जनरल को सत्ता संभालने के लिए आमंत्रित किया हो, यह पाकिस्तान के लिए कोई अनहोनी घटना नहीं है। 1958 में, असैनिक राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्जा ने मार्शल लॉ लागू करके जनरल मुहम्मद अय्यूब खान को ‘चीफ मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेटर’ (सीएमएलए) नियुक्त किया था। अय्यूब ने मिर्जा को ही बर्खास्त कर दिया, खुद राष्ट्रपति बन बैठे और एक गुमनाम, मुफीद शख्स मुहम्मद मूसा खान को अपने मातहत सेना अध्यक्ष बना दिया। लेकिन तब यह सवाल खड़ा हो गया कि एक जनरल किसी जनरल को ही कैसे रिपोर्ट करे? सो, अय्यूब ने खुद को फील्ड मार्शल नियुक्त कर लिया। मूसा 1966 तक पद पर रहे। इसने पाकिस्तानी सेना अध्यक्षों के लिए लंबे कार्यकाल का रास्ता बना दिया। तुलना करें तो पाकिस्तान में अब तक केवल 17 सेना अध्यक्ष हुए हैं, जबकि भारत में अभी 31वें सेना अध्यक्ष पद पर आसीन हैं। 2030 में मुनीर जब अपना कार्यकाल पूरा करेंगे, तब तक भारत को 33वें सेना अध्यक्ष मिल चुके होंगे। अय्यूब ने पार्टी विहीन, ‘निर्देशित लोकतंत्र’ का आविष्कार किया, फर्जी चुनाव करवाए और जिन्ना की बहन फातिमा को भी चुनाव में हरवा दिया। अय्यूब ने कमान जनरल याह्या खान को सौंपी। याह्या के विदेश मंत्री हुए जुल्फिकार अली भुट्टो। याह्या ने भी एक चुनाव करवाया। लेकिन उनके अनुसार ‘गलत’ पक्ष, मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग चुनाव जीत गई तो उन्होंने चुनाव नतीजों को खारिज कर दिया। उनके बाद भुट्टो ने 1977 में मार्शल लॉ के साथ प्रयोग करने की कोशिश की, लेकिन जनरल जिया-उल हक ने उनकी छुट्टी कर दी, उन्हें जेल में डाल दिया और फांसी पर चढ़ा दिया। जिया ने ‘निजाम-ए-मुस्तफा’ कायम करने की कोशिश की, फिर प्रायोजित चुनाव करवा के लंगड़ा लोकतंत्र बहाल करने की कोशिश की और इस चुनाव के बाद बने प्रधानमंत्री मोहम्मद खान जुनेजो को बर्खास्त कर दिया। 17 अगस्त 1988 को वे बहावलपुर में सी-130 विमान हादसे या बम विस्फोट में मारे गए, और इतिहास उनके और ‘कल्पनाशील’ प्रयोगों से वंचित रह गया। तब से, वहां कोई-न-कोई फौजी जनरल या तो सीधे सत्ता संभालता रहा है (जैसे परवेज मुशर्रफ) या बाहर से कमान को काबू में रखता रहा है या परदे के पीछे से डोर खींचता रहा है और हुकूमत को बहलाकर अपना कार्यकाल बढ़वाता रहा है। लेकिन मुनीर तो एक नई ही पटकथा लेकर आए हैं। फौजी सत्ता की बीमारी पाकिस्तान में ही क्यों है? श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल में कोई फौजी जनरल सत्ता हथिया सकता था। लेकिन उन्होंने सेना का प्रयोग अराजकता के बीच भरोसा जगाने के लिए किया और शांतिपूर्ण सत्ता परिवर्तन या चुनाव करवाए। दूसरी तरफ मुनीर हैं, जो अपनी सत्ता को मजबूती देते चले जा रहे हैं। (ये लेखक के अपने विचार हैं)