ट्रम्प के 50% टैरिफ हमारी निर्यात-अर्थव्यवस्था को बदल रहे हैं। भारत द्वारा अमेरिका को बेचा जाने वाला बहुत सारा सामान अब बेहद महंगा हो गया है। बीते दो दशकों को देखें तो 2005 में वैश्विक निर्यात में भारत की हिस्सेदारी 1.2% थी, जो 2023 में 2.4% हो गई। इसके पीछे निर्यातकों, नीति-निर्माताओं, कामगारों की अथक मेहनत थी। उन्होंने समझा था कि ट्रेड ही विकास की सीढ़ी है। लेकिन अब ट्रम्प टैरिफ के चलते भारत के इस सीढ़ी पर कुछ पायदान नीचे गिरने का जोखिम है। गत सितम्बर में भारत का माल व्यापार घाटा 13 महीनों के उच्चतम स्तर (32.15 अरब डॉलर) तक पहुंच गया। जबकि अगस्त में यह 26.49 अरब डॉलर था। सितम्बर में अमेरिका को हुआ निर्यात 5.4 अरब डॉलर का रह गया, जो अगस्त में 6.9 अरब डॉलर था। अक्टूबर में और गिरावट हुई और अमेरिका को हमारा निर्यात पिछले साल इसी महीने की तुलना में 9% गिर गया। यह किसी अमूर्त मैक्रो-इकोनॉमिक मसले जैसा नहीं है। भारत में ट्रम्प टैरिफ की सबसे ज्यादा मार टेक्स्टाइल्स, चमड़ा, जेम्स एंड ज्वैलरी, जूते, हैंडीक्राफ्ट, सी-फूड जैसे श्रम-प्रधान उद्योगों पर पड़ी है। इन सेक्टरों में बड़ी संख्या में महिलाओं समेत लाखों श्रमिक कार्यरत हैं। अमेरिकी प्रशासन जहां अपनी भू-राजनीतिक जोर-आजमाइश में व्यस्त है, वहीं इन गरीब श्रमिकों के लिए रोजी-रोटी का सवाल आ खड़ा हुआ है। टेक्स्टाइल्स एंड अपैरल क्षेत्र को तो बड़ा झटका लगा है। 2024-25 में इस सेक्टर में भारत ने अकेले अमेरिका को 10.9 अरब डॉलर का निर्यात किया था, जो भारत के कुल परिधान निर्यात का 35% था। लेकिन इस उद्योग के लिए टैरिफ दरों के 13.9% से 63.9% होते ही भारतीय कपड़े अपने सबसे बड़े बाजार से बाहर हो गए। निर्माता अब महज टैरिफ कम होने के भरोसे नहीं रह सकते। बांग्लादेश और वियतनाम अमेरिकी ग्राहकों को कपड़े बेचने लगे हैं। पाकिस्तान डेनिम और ऊन बेच रहा है। कम्बोडिया फास्ट-फैशन निट्स का नया हब बन रहा है। अमेरिका के तटीय देश मैक्सिको और काफ्टा-डीआर ब्लॉक- जिसमें अमेरिका, डोमिनिकन गणराज्य के अलावा मध्य अमेरिका के पांच देश शामिल हैं- ने अमेरिकी रिटेलर्स को कम समय में और टैरिफ-फ्री सप्लाई की पेशकश की है। जब तक टैरिफ कम होंगे, पूरी सप्लाई चेन बदल चुकी होगी। हम बाजार में कड़ी मेहनत के दम पर बनाई हिस्सेदारी खो देंगे। भारतीय कार्पेट सेक्टर का भी 60% निर्यात अमेरिका को होता है। लेकिन इन उत्पादों पर टैरिफ 2.9% से सीधे 52.9% होने के कारण अमेरिकी ग्राहक तुर्किए, चीन और मिस्र में तुर्की-स्वामित्व वाली मिलों का रुख कर रहे हैं। चमड़े के मामले में भी अमेरिकी बाजार भारतीय उत्पादों के लिए बंद होते जा रहे हैं। जेम्स एंड ज्वेलरी सेक्टर तो सर्वाधिक प्रभावित हुआ है। सितम्बर में मुम्बई के सांताक्रूज इलेक्ट्रॉनिक्स एक्सपोर्ट प्रोसेसिंग जोन (एसईईपीजेड) से इन उत्पादों के निर्यात में बीते साल के सितम्बर की तुलना में 71 से 76% तक की गिरावट आई है। इससे क्षेत्र के हजारों कारीगरों, पॉलिश करने वालों और उद्यमियों के लिए आजीविका का संकट पैदा हो गया है। कई निर्यातकों ने टैरिफ को भांपते हुए पहले ही निर्यात खेप भेजने की कोशिश की थी। और इसीलिए मौजूदा वित्तीय वर्ष की पहली छमाही में अमेरिका को भारत का निर्यात 13% बढ़कर 45.8 अरब डॉलर पहुंच गया। लेकिन टैरिफ लागू होते ही ऑर्डर थम गए। ऐसे में हमें अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और दक्षिण-पूर्व एशिया में टेक्स्टाइल्स, चमड़ा, प्रोसेस्ड फूड की बढ़ती मांग का फायदा उठाते हुए ग्लोबल साउथ के भीतर ही व्यापारिक रिश्ते बढ़ाने चाहिए। हमें बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका के साथ मिलकर क्षेत्र के लिए एकीकृत टेक्स्टाइल्स एंड अपैरल सप्लाई चेन बनानी चाहिए। यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि यदि अमेरिका को सीधा निर्यात घटता भी है तो यह सप्लाई चेन वैश्विक संदर्भ में प्रासंगिक बनी रहे। ऑस्ट्रेलिया और यूएई से मुक्त व्यापार समझौतों को लागू करने के लिए भरसक प्रयास भी करने चाहिए, ताकि पूर्व में अमेरिका जाने वाले कुछ उत्पादों खपत तो की जा सके। ये बदलाव रातोंरात नहीं हो सकते। ऐसे में हम कूटनीति के जरिए कुछ सेक्टरों में राहत पा सकते हैं। (@प्रोजेक्ट सिंडिकेट)