भारत में प्राकृतिक खेती की दिशा में अब तक जो भी प्रगति हुई है, वह ज्यादातर सप्लाई साइड पर केंद्रित रही है। यानी नीतियां बनी हैं, पायलट प्रोजेक्ट शुरू हुए हैं, किसानों को प्रशिक्षण भी मिल रहा है। लेकिन अभियान की असली ताकत अभी अधूरी है, क्योंकि उपभोक्ताओं की मांग अब भी कमजोर है। जब तक बाजार में प्राकृतिक उत्पादों की स्पष्ट मांग नहीं बनेगी, यह आंदोलन गति नहीं पकड़ पाएगा। देशभर में कई जमीनी स्तर के मॉडल उभर रहे हैं, जो भारी-भरकम सर्टिफिकेशन व्यवस्था से हटकर भरोसे पर आधारित काम कर रहे हैं। तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में सहज आहार नेटवर्क 9,000 किसानों को सीधे उपभोक्ताओं से जोड़ता है। छत्तीसगढ़ में भूमगाड़ी ऑर्गेनिक ने आदिवासी किसानों के लिए बाजार का रास्ता खोला है। कर्नाटक में ऑर्गेनिक मांड्या नाम की किसान-संचालित शृंखला ने 25 करोड़ के खुदरा कारोबार के साथ साबित किया है कि किसान भी व्यावसायिक रूप से सफल हो सकते हैं। इन समुदाय-आधारित पहलों का महत्व तब और बढ़ जाता है, जब हम देखते हैं कि सरकारी प्रमाणन प्रणाली अक्सर बिचौलियों के हाथ में चली जाती है और भ्रष्टाचार का अड्डा बन जाती है। ऐसे में भरोसा पारदर्शिता और प्रत्यक्ष जुड़ाव से ही बन सकता है। मसलन, सेफ हार्वेस्ट नामक पहल बिना किसी औपचारिक प्रमाणन के भी लेबोरेटरी में जांचे, कीटनाशक मुक्त उत्पादों को उचित दामों पर बेचती है और क्यूआर कोड के जरिए उपभोक्ता को पूरी जानकारी देती है। यह दिखाता है कि जमीनी स्तर से बना भरोसा ऊपर से थोपे सिस्टम से कहीं बेहतर है। दुनिया भर में कंज्यूमर सपोर्टेड एग्रीकल्चर मॉडल ने दिखाया है कि अगर उपभोक्ता और उत्पादक के बीच संबंध और विश्वास हो, तो कड़े नियम की जरूरत नहीं पड़ती। भारत में भी हफ्तावार किसान बाजार और सामुदायिक सदस्यता मॉडल इसी दिशा में बढ़ रहे हैं। ऐसे भरोसे पर आधारित तंत्र को फैलाना चाहिए, ना कि नौकरशाही से रेगुलेट करना चाहिए। भारत का उपभोक्ता भी बदलाव के लिए तैयार है। स्वास्थ्य और पर्यावरण को लेकर जागरूकता तेजी से बढ़ रही है। ऑर्गेनिक भोजन की खपत हर साल लगभग 25% बढ़ रही है, हालांकि इसका आधार अभी भी छोटा है। नीलसन की 2021 की रिपोर्ट कहती है कि 72% भारतीय उपभोक्ता रसायन-मुक्त भोजन के लिए अधिक दाम देने को तैयार हैं, लेकिन ये संवेदनशीलता कीमत के अनुपात में घटती है। लगभग 38% लोग 20% तक ज्यादा देने को तैयार हैं, लेकिन 2-3 गुना कीमत कोई नहीं देगा। इससे यह तो साफ है कि मध्यम स्तर की कीमतों पर उपभोक्ता तैयार हैं, बशर्ते उन्हें भरोसा हो कि जो वे खरीद रहे हैं वह असली है। हर नया उत्पाद पहले कुछ ‘शुरुआती अपनाने वालों’ (अर्ली एडॉप्टर्स) से शुरू होता है- वे लोग जो सेहत के प्रति सजग होते हैं और सामाजिक-पर्यावरणीय मूल्यों से जुड़े रहते हैं। जब ये लोग उत्पाद अपनाते हैं, तो बाजार में संकेत जाता है, निवेश आता है और धीरे-धीरे उत्पाद आम लोगों तक भी सुलभ हो जाता है। प्राकृतिक खेती भी यही रास्ता अपना सकती है। उपभोक्ता की रुचि ऐसे उत्पादों में है, जो पारदर्शी, स्थानीय और विश्वसनीय हों- जिनकी कहानी समझ में आए और जिन पर भरोसा किया जा सके। निजी क्षेत्र में भी कई संस्थाएं इस दिशा में आगे आ रही हैं। फार्माइजन 8,000 किसानों को 35,000 ग्राहकों से जोड़ता है और खेत स्तर पर डेटा साझा करता है। 24 मंत्रा ऑर्गेनिक ने 27,000 किसानों का ट्रेसेबल नेटवर्क बनाया है। बिग बास्केट और वी कूल जैसे प्लेटफॉर्म प्राकृतिक उत्पादों की शृंखला बेच रहे हैं। हमें नैतिक कृषि उद्यमियों को भी प्रोत्साहित करना चाहिए। इंदौर में जैविक सेतु इसका उदाहरण है- यह किसानों व उपभोक्ताओं को हफ्तावार हाट के माध्यम से जोड़ता है, रसायन-मुक्त खेती को बढ़ावा देता है और एक कैफे भी चलाता है। जहां प्राकृतिक खाना परोसा जाता है। अब तक भारत की प्राकृतिक खेती की रणनीति किसानों पर केंद्रित रही है। लेकिन असली बदलाव उपभोक्ता से शुरू होता है। अगर बाजार पर्यावरण और समाज के प्रति जिम्मेदार खेती को पुरस्कृत करेगा, तो किसान भी पूरी ईमानदारी से उसका जवाब देंगे। (ये लेखक के अपने विचार हैं। इस लेख के सहलेखक डॉ. अदिति रावत और डॉ. रिया ठाकुर हैं।)