प्रियदर्शन का कॉलम:हमें दूसरों की आस्थाओं का सम्मान करना सीखना होगा

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महिला विश्व कप क्रिकेट के सेमीफाइनल में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ मैच-विजेता पारी खेलते हुए शतक लगाने वाली भारतीय बल्लेबाज जेमिमा रोड्रिग्स से मैच के बाद पूछा गया कि वे जब थक गई थीं तो क्या महसूस कर रही थीं? भावनाओं के ज्वार से बने आंसुओं में डूबी जेमिमा ने बहुत ईमानदार जवाब दिया कि उस समय उन्होंने बाइबिल की पंक्तियां याद कीं- "स्टैंड स्टिल एंड गॉड विल फाइट फॉर यू' (जमे रहो तो ईश्वर तुम्हारे लिए लड़ेंगे)। जेमिमा इस मोड़ तक बिल्कुल अपनी मेहनत से आई थी। सेमीफाइनल से पहले वाले मैच में उन्हें खेलने का मौका भी नहीं मिला था। तो टीम में उनका चयन एक इत्तेफाक भी था। लेकिन इस संयोग से मिले अवसर को उन्होंने अपने पराक्रम से एक ऐतिहासिक उपलब्धि में बदल डाला था। इसी क्रम में अपनी थकान से जूझने के लिए अगर उन्होंने अपने ईश्वर से प्रेरणा ली और यह बात बता दी तो क्या इसे खेल के बीच धर्म को लाना कहेंगे? दरअसल धर्म का मामला बहुत दुविधा भरा होता है। धर्म और अध्यात्म में एक बहुत बारीक रेखा होती है। वैसी ही बारीक रेखा आस्था व अंधविश्वास के बीच भी होती है। शायद इससे कुछ मोटी रेखा धार्मिकता और साम्प्रदायिकता के बीच होती है। हमें पता नहीं चलता कि हम कब आध्यात्मिक होते-होते धार्मिक हो जाते हैं और आस्थावान होते-होते अंधविश्वासी हो जाते हैं। हमें यह भी पता नहीं चलता कि हम कब धार्मिक होते-होते साम्प्रदायिक भी हो उठते हैं।आज के भारत में धार्मिक पहचानें भी निशाने पर हैं- या वही शायद सबसे ज्यादा निशाने पर हैं। हर किसी को हिंदू, मुसलमान, ईसाई या सिख के रूप में पहचाना जा रहा है। यहां से वह साम्प्रदायिकता शुरू होती है, जो इन पहचानों के आधार पर राष्ट्रीयताओं या प्राथमिक नागरिकताओं का निर्माण शुरू करती है। भारतीय क्रिकेट टीम की रिकॉर्ड जीत के मौके पर जेमिमा के वक्तव्य के साथ ही कइयों को उनकी धार्मिक पहचान याद आने लगी। इनमें वे उदारवादी लोग भी शामिल हैं, जिन्हें लगता है कि खेल और धर्म के घालमेल में रियायत किसी को नहीं मिलनी चाहिए। वे भूल जाते हैं कि यह रियायत सबसे ज्यादा वे लोग ले रहे हैं, जो बहुसंख्यकवादी दुराग्रहों के मारे हैं। कितना सुंदर होता कि हम खेलों को न राजनीति से जोड़ते और न ही धर्म से। लेकिन वह हमने बुरी तरह जोड़ रखा है। खेल- खासकर क्रिकेट हमारे राष्ट्रवादी उबाल के लिए अफीम का काम करने लगा है। इस राष्ट्रवाद की जो नई व्याख्या धार्मिक और जातिगत पहचान के आधार पर शुरू हो गई है, उसमें कभी जेमिमा रोड्रिग्स की ईसाइयत को प्रश्नांकित किया जा सकता है तो कभी सूर्य कुमार यादव की ओबीसी पहचान का परचम फहराया जा सकता है। टीम में धार्मिक पहचान के आधार पर खिलाड़ियों के चयन का आरोप तो बीते दिनों लगाया ही जा चुका है। जबकि दुनिया भर में खिलाड़ी अपनी आस्था का सार्वजनिक प्रदर्शन करते रहे हैं। फुटबॉलर लियोनल मेस्सी ने 2022 का फुटबॉल विश्व कप जीतने के बाद इसे ईश्वर का तोहफा बताया था। वे कई बार गोल करने के बाद क्रॉस का चिह्न बनाते देखे जा सकते हैं। लेकिन कोई मेस्सी से नहीं कहता कि वे अपनी जीत में ईश्वर को क्यों शामिल कर रहे हैं। पुट्टपर्थी के सांईबाबा के प्रति सचिन तेंदुलकर की आस्था जगजाहिर है- कोई उनसे प्रतिप्रश्न नहीं करता। लेकिन जेमिमा जब पिच पर खड़े रहने की ताकत जीसस क्राइस्ट से हासिल करती हैं, तो इस पर सवाल पूछे जाने लगते हैं। क्योंकि हम आस्था को संदेह से देखते हैं, और अंधविश्वास पर भरोसा करते हैं। जिस देश में धर्म राजनीति की नियामक शक्तियों में एक हो, जहां अल्पसंख्यक पहचानों के खिलाफ सार्वजनिक माहौल बनाया जा रहा हो, वहां एक जेमिमा क्या अपनी ईसाई आस्था का प्रदर्शन कर सुरक्षित रह सकती हैं? हम इस मामले में अचानक तर्कवादी क्यों हो उठते हैं? इस सवाल में हम सबका इम्तिहान है- हमारी भारतीयता का भी। कितना सुंदर होता कि हम खेलों को न राजनीति से जोड़ते और न ही धर्म से। लेकिन वह हमने जोड़ रखा है। जहां धर्म राजनीति की नियामक शक्तियों में हो, वहां जेमिमा अपनी ईसाई आस्था का प्रदर्शन नहीं कर सकतीं? इस सवाल में हमारी भारतीयता का इम्तिहान है।(ये लेखक के निजी विचार हैं)