हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के दो फैसलों ने जटिल समस्याओं के न्यायिक निपटारे को लेकर चिंताएं पैदा की हैं। ताज्जुब है कि दोनों आदेश संबंधित अधिकारियों और हितधारकों को कारण बताओ नोटिस जारी करने, सभी पक्षों को सुनने और निष्पक्ष-तर्कसंगत निर्णय सुनिश्चित करने के लिए विश्वसनीय आंकड़ों की समीक्षा की उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना ही दे दिए गए थे। इसके परिणामस्वरूप ऐसे फैसले आए, जिनसे हल की जाने वाली समस्याएं और बढ़ गईं। निर्णय लेने की प्रक्रिया में मनमानी भविष्य के लिए चिंताजनक संकेत देती है। दोनों ही मामलों में अदालत ने केवल एक पक्ष- सरकारी वकील की बात सुनी। हितधारकों को इससे बाहर रखा गया। उदाहरण के लिए, अदालत ने दिवाली के दो दिनों में सीमित समय के लिए ग्रीन पटाखे फोड़ने की अनुमति देने के अपने आदेश को लागू करने की व्यवहार्यता पर पुलिस की राय नहीं ली। न ही उसने स्वास्थ्य और प्रदूषण विशेषज्ञों से दिल्ली की हवा पर पटाखों की आंशिक छूट या विषाक्तता के स्तर के प्रभाव के बारे में परामर्श किया। लोगों ने दिवाली से पहले, बाद में और तय समय से ज्यादा समय तक पटाखे फोड़े। पुलिस अदालती आदेश के उल्लंघन को रोकने में विफल रही। शहर की सड़कों और गलियों में गश्त के लिए पर्याप्त जनशक्ति के अभाव में वह असहाय दर्शक बनकर रह गई। परिणाम यह रहा कि वायु प्रदूषण खतरनाक स्तर तक पहुंच गया और दिल्ली धुंध में डूब गई। आवारा कुत्तों की समस्या से निपटने का तरीका और ज्यादा परेशान करने वाला रहा है। दो जजों की एक पीठ ने एक खबर का स्वतः संज्ञान लिया, जिसमें एक बच्चे की रेबीज से मौत होने की बात कही गई थी। रिपोर्ट की सत्यता स्थापित किए बिना सिर्फ सरकारी वकील के बयान के आधार पर एक पखवाड़े से भी कम समय में आदेश जारी कर दिया गया। हालांकि बाद में सामने आया कि बच्चे की मौत मेनिन्जाइटिस से हुई थी। फिर भी नगर निगम अधिकारियों को आठ हफ्तों के भीतर शहर से आवारा कुत्तों को हटाकर शेल्टर में छोड़ने का निर्देश दिया गया। कुत्तों की बड़ी आबादी के लिए आश्रय-स्थलों की उपलब्धता या इस बड़े काम को केवल आठ हफ्तों में पूरा करने के लिए जरूरी मानवशक्ति और अन्य बुनियादी ढांचे के संदर्भ में स्थानीय प्रशासन की क्षमता जांचने का कोई प्रयास तक नहीं किया गया। इससे भी चिंतनीय बात यह है कि अदालत ने सरकार के अपने पशु कल्याण बोर्ड सहित स्थापित पशु अधिकार समूहों की बात सुनने से इनकार कर दिया, जो लंबे समय से कुत्तों को शेल्टर में भेजने के बजाय उनके लिए जन्म नियंत्रण उपायों की वकालत करते रहे हैं, क्योंकि आवारा कुत्तों की संख्या कम करने के लिए यही एकमात्र व्यावहारिक समाधान है। नतीजे भयावह थे। इस फैसले ने दिल्ली के सामाजिक ताने-बाने में उथल-पुथल पैदा कर दी। हफ्तों तक शहर में विरोध-प्रदर्शन होते रहे। डॉग-लवर्स की एंटी-डॉग्स समूहों से झड़पें होती रहीं। पड़ोसी पड़ोसी के खिलाफ और लोग पुलिस के विरुद्ध खड़े हो गए। इसके बाद तीन न्यायाधीशों की पीठ ने अपने पहले के आदेश को संशोधित कर दिया। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से कुछ ही महीनों के भीतर उसी पीठ ने एक अतिरिक्त प्रावधान के साथ मूल आदेश को बहाल कर दिया। इतना ही नहीं, इस बार आदेश के दायरे का विस्तार करते हुए पूरे देश को कवर करने की भी बात कही। इन आदेशों का चकित करने वाला पहलू यह है कि ये सुप्रीम कोर्ट के ही अतीत के उन आदेशों की भावना के विरुद्ध पाए गए हैं, जिनमें करुणापूर्ण और मानवीय दृष्टिकोण के अनुरूप मानवीय आवश्यकताओं और पर्यावरण के बीच एक विवेकपूर्ण संतुलन बनाए रखने के महत्व पर जोर दिया गया था। 2024 के प्रसिद्ध ग्रेट इंडियन बस्टर्ड मामले में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने बिजली की बढ़ती मांग और लुप्त हो रहे गोडावण पक्षियों के संरक्षण के बीच एक मध्यमार्ग खोज निकाला था। 2022 में आवारा कुत्तों से संबंधित एक पिछले मामले में पूर्व मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने करुणा के महत्व पर जोर देते हुए फैसला सुनाया था कि आवारा कुत्तों को शेल्टरों में बंदी बनाकर नहीं रखा जा सकता। अनुच्छेद 21 पढ़ें तो यह प्राकृतिक न्याय का मूलभूत सिद्धांत है कि किसी भी व्यक्ति को जीवन या स्वतंत्रता से केवल कानून द्वारा स्थापित निष्पक्ष, न्यायसंगत और उचित प्रक्रिया के पालन से ही वंचित किया जा सकता है। इसका अर्थ है सभी हितधारकों की बात सुनना, न कि केवल सरकारी वकील की। भारत के नागरिक सर्वोच्च न्यायालय से यही अपेक्षा करते हैं। किसी भी व्यक्ति को जीवन या स्वतंत्रता से केवल कानून द्वारा स्थापित निष्पक्ष, न्यायसंगत और उचित प्रक्रिया के पालन से ही वंचित किया जा सकता है। इसका अर्थ है सभी हितधारकों की बात सुनना, न कि केवल सरकारी वकील की।(ये लेखिका के अपने विचार हैं)