जब मैंने कॉलेज में पहला कदम रखा था तो मुझे लगा जैसे मैं आजादी की दहलीज पर पहुंच गई हूं। हर क्लास, हर अहाते में बौद्धिकता, समानता और स्वतंत्रता की चमक थी। ये ऐसी जगह मानी जाती थी, जहां हर लड़की बिना डर के घूम सकती थी। लेकिन उसके दशकों के बाद आज यह हालत है कि बेंगलुरु जैसे शहर में एक युवती इंजीनियरिंग कॉलेज में कदम रखती है और सीधे नर्क जैसी हालत में पहुंच जाती है। इससे कैम्पस में सुरक्षा का भ्रम अब टूटने लगा है। हाल ही, बेंगलुरु में 21 साल की एक छात्रा के साथ उसके जूनियर ने पुरुषों के वॉशरूम में दुष्कर्म किया। उसके बाद, बेहद बेशर्मी से छात्रा से यह भी पूछा बताया कि ‘क्या तुम्हें पिल चाहिए?’ वहां ना कोई सीसीटीवी था, ना तत्काल कार्रवाई हुई और ना ही संस्थान ने कोई जिम्मेदारी ली। थी तो सिर्फ चुप्पी, ब्यूरोक्रेसी और वही पुराना अविश्वास, जो आवाज उठाने वाली हर महिला को झेलना पड़ता है। और यह अपनी तरह की कोई इकलौती घटना नहीं है। चंद हफ्तों पहले ही पश्चिम बंगाल के एक निजी कॉलेज की मेडिकल छात्रा भी कथित तौर पर कैम्पस में ही सामूहिक दुष्कर्म का शिकार बनी। इसे लेकर विरोध-प्रदर्शन भी हुए। दिल्ली में भी यूनिवर्सिटी कैम्पस में सामूहिक दुष्कर्म के प्रयास की एक ताजा शिकायत आई। यह बताता है कि ‘सुरक्षित’ कहे जाने वाले ये संस्थान भीतर से महिलाओं के लिए कितने असुरक्षित हैं। यह हिंसा की वो अनवरत शृंखला है, जो दिल्ली की बसों से मणिपुर के गांवों तक और उन कैम्पसों तक फैली है- जो महिला सशक्तीकरण का दम भरते हैं। जगहें बदल जाती हैं, पैटर्न नहीं। एक महिला हमले का शिकार बनती है, व्यवस्था मुंह फेर लेती है और समाज उसे संदेह भरी नजर से देखता है। और भी बदतर ये कि यह वारदात ऐसी जगह पर होती है, जो शिक्षा के सुरक्षित और समावेशी केंद्र माने जाते हैं- एक कॉलेज, जो खुद को प्रोग्रेसिव, को-एड और मॉडर्न बताता हो। लेकिन ऐसी शिक्षा का क्या मतलब, जो पुरुषों को सहमति के मायने तक नहीं सिखा सकती? बड़ी-बड़ी डिग्रियां वितरित करने का भी क्या फायदा, अगर संस्थान सुरक्षा की सबसे बुनियादी जिम्मेदारी में ही विफल रहें? विश्वविद्यालयों को लैब-कोट पहनी लड़कियों के फोटो वाले लुभावने ब्रोशर और उनके लिए कार्यशालाएं आयोजित करना तो बहुत लुभाता है, लेकिन उन्हीं छात्राओं से पूछो कि कितनी बार कैम्पस में मनचलों ने पीछा किया? कितनी ही शिकायतें जवाब मांगती रह गईं? कितने ही शिक्षकों ने कह दिया कि ‘बेहतरी चाहती हो तो चुप रहो।’ सशक्तीकरण के ढकोसले और जिंदगी की हकीकत का अंतर बहुत विद्रूपतापूर्ण है। दुष्कर्म सिर्फ शारीरिक यातना ही नहीं देता, यह स्त्री के भरोसे को भी चकनाचूर कर देता है। भरोसा- जो लोगों पर, जगहों पर और वादों पर होता है। और जब कोई विश्वविद्यालय इस अपराध से आंखें फेर लेता है तो वह हर युवती से कह रहा होता है : तुम्हारी सुरक्षा हमारे लिए कोई मसला नहीं। और कुछ दिन बाद जब मीडिया शोर मचाता है तो वह पीड़िता को कहता है : ये दर्द हमेशा नहीं रहने वाला, सब ठीक हो जाएगा। सुरक्षा विशेषाधिकार नहीं हो सकती। महिलाओं की सुरक्षा के लिहाज से हर विश्वविद्यालय की ऑडिट होनी चाहिए। हर हॉस्टल में एक कार्यशील शिकायत प्रकोष्ठ होना चाहिए और प्रत्येक छात्र को सहमति और जवाबदेही के प्रति जागरूक किया जाना जरूरी है। लेकिन बदलाव सिर्फ नीतियों से नहीं आने वाला। यह उस आक्रोश से आएगा, जो समय के साथ ओझल न हो जाए। माता-पिता लड़कियों को यह कहना बंद करें कि सावधान रहना और लड़कों से यह कहना शुरू करें कि शालीन बनो। बेंगलुरु का मामला सिर्फ एक लड़की का मामला नहीं, बल्कि यह हर उस महिला से जुड़ा है- जिसने कभी क्लास में जाने, अकेले चलने और सपने देखने की कोशिश की हो। जब तक हमारे कैम्पस उनके लिए सुरक्षित नहीं होंगे, तब तक महिला सशक्तीकरण के दावे एक भद्दा मजाक हैं। जब कैम्पस ही असुरक्षित हो जाए, तो एक ही सवाल बचता है : क्या आप अपनी बेटी को वहां भेजेंगे? बदलाव सिर्फ नीतियों से नहीं आने वाला है। यह उस व्यापक आक्रोश से आएगा, जो समय के साथ धीरे-धीरे ओझल न हो जाए। माता-पिता लड़कियों को यह कहना बंद करें कि सावधान रहना और लड़कों से यह कहना शुरू करें कि शालीन बनो। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)