आर. जगन्नाथन का कॉलम:जदयू से ज्यादा सीटें जीतकर भाजपा ने परिदृश्य बदला है

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बिहार चुनाव के नतीजों से अगर कोई एक सबक सभी राजनीतिक दल सीख सकते हैं तो वो यह है कि मतदाता अत्यधिक नकारात्मकता और लोकप्रिय नेताओं पर हमले पसंद नहीं करता। चुनावों के दौरान, सबसे मुखर नेता राहुल गांधी थे, जिन्होंने वोट चोरी को लेकर खूब हंगामा किया और प्रधानमंत्री पर व्यक्तिगत हमले किए। वे बिहारी मतदाताओं को बता रहे थे कि आपके वोट ने उसे चुना है, जिसे आपने वोट नहीं दिया था! चूंकि 2020 के विधानसभा चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनाव के नतीजों को लेकर बहुत कम मतदाताओं का वैसा मानना था, जैसा राहुल बता रहे थे, इसलिए उन्हें एहसास हुआ कि वे अति कर रहे हैं। दूसरा बिंदु यह है कि इस बार चुनाव सर्वेक्षणकर्ताओं ने दिशा तो सही बताई, लेकिन मतदाताओं के मूड की गहराई को समझने में चूक की। सच तो यह है कि जब मतदाता मन बना लेता है तो वह निर्णायक रूप से एक ही दिशा में जाता है। इस मामले में महिलाओं का वोट- जो इस बार पुरुषों से ज्यादा था- निर्णायक रूप से नीतीश को गया। चूंकि प्रधानमंत्री की महिला मतदाताओं के बीच भी सकारात्मक छवि थी, इसलिए लड़ाई का फैसला अनिवार्य रूप से जातिगत सीमाओं से परे महिला मतदाताओं ने किया है। सवाल यह है कि मतदाताओं ने एक बार फिर ऐसे मुख्यमंत्री को क्यों चुना, जो कई बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं? इसके जवाब में मतदाताओं की मंशा पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता होगी। लेकिन एक बात उनके मन में जरूर आई होगी : जब राज्य विकास के मोर्चे पर कुछ नतीजे दिखाने लगा है, तो ऐसे विपक्षी गठबंधन को चुनकर सारे लाभ खोने का जोखिम क्यों उठाया जाए, जो पूरे समय केंद्र से लड़ता रहेगा? बिहार को केंद्र और राज्य दोनों को एक ही दिशा में खींचने की जरूरत है। दो और बातें ध्यान देने योग्य हैं। पहली, 2020 में जब चिराग पासवान ने नीतीश विरोधी अभियान शुरू किया था, तो उसके विपरीत इस बार एनडीए के सभी सहयोगी एकजुट होकर काम कर रहे थे। यह इंडिया गठबंधन के विपरीत था, जिसमें कांग्रेस और राजद के बीच सीएम के चेहरे को लेकर लंबे समय तक मतभेद रहे थे। दोनों सहयोगी अलग-अलग मुद्दों पर जोर दे रहे थे। इससे भी बुरी बात यह है कि एआईएमआईएम ने सीमांचल में मुस्लिम वोट का एक बड़ा हिस्सा छीन लिया। यह तथ्य कि कांग्रेस को एआईएमआईएम से भी कम सीटें मिलीं, अपनी कहानी खुद बयां कर देता है। इस बार के चुनाव में प्रशांत किशोर एक नया चेहरा थे। चुनाव से पहले उन्हें खूब प्रचार-प्रसार तो मिला, लेकिन वे बुरी तरह से फ्लॉप हो गए। वे एक भी सीट नहीं जीत पाए और चुनाव से पहले की उनकी सभी साहसिक भविष्यवाणियां गलत साबित हुईं। ये नतीजे बताते हैं कि मीडिया में छाए रहने से बात नहीं बनती। चुनाव से पहले, प्रशांत किशोर कई टीवी और यूट्यूब चैनलों पर बता रहे थे कि उनके उदय से कौन प्रभावित होगा और नीतीश कुमार कैसे चुनाव हार सकते हैं। हुआ ठीक उल्टा। मीडिया ने उन्हें उकसाया और वे उसके झांसे में आ गए। खुद चुनाव नहीं लड़ने के उनके फैसले से भी उनकी छवि को कोई फायदा नहीं हुआ। या शायद हो सकता है कि उन्होंने पहले ही खतरे का अंदाजा लगा लिया हो। लेकिन बिहार चुनाव से सबसे ज्यादा फायदा भाजपा को हुआ है। अब दिल्ली में उसके गठबंधन को कोई खतरा नहीं है, जिसमें जदयू एक महत्वपूर्ण सहयोगी है। लेकिन साथ ही, जदयू पर अपनी बढ़त बनाकर उसने यह भी साफ कर दिया कि नीतीश के बाद बिहार में वही मुख्य राजनीतिक धुरी बनेगी। हालांकि, जदयू से ज्यादा सीटें जीतने के बावजूद भाजपा नीतीश को अस्थिर नहीं करना चाहेगी, क्योंकि उनकी मौजूदगी उसे बिहार में अल्पसंख्यकों तक पहुंचने का मौका देती है। भाजपा अभी कोई दांव नहीं लगाना चाहेगी। लेकिन वह शायद कुछ बड़े मंत्रालय और 2029 में लोकसभा सीटों का बड़ा हिस्सा मांग सकती है। तेजस्वी के लिए सबक गंभीर हैं। नीतीश की सुनामी में न सिर्फ उन्होंने अपनी सीटें गंवाई, बल्कि चुनाव से कुछ हफ्ते पहले तक राहुल गांधी के पीछे रहकर उन्होंने साफ तौर पर एक गलती की। उन्हें अभी बहुत कुछ सीखना है कि किस पर भरोसा करना है और किसे दरकिनार करना है। अब दिल्ली में भाजपानीत गठबंधन को कोई खतरा नहीं है, जिसमें जदयू एक महत्वपूर्ण सहयोगी है। साथ ही, जदयू पर अपनी बढ़त बनाकर भाजपा ने यह भी साफ कर दिया कि नीतीश के बाद बिहार में वही मुख्य राजनीतिक धुरी बनेगी। (ये लेखक के अपने विचार हैं)