प्रो. चेतन सिंह सोलंकी का कॉलम:हम 1 धरती पर 1.8 धरती जितने संसाधनों का उपभोग कर रहे हैं

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पिछले महीने दिवाली का त्योहार संपन्न हुआ। इस बार भारत की त्योहारी बिक्री रिकॉर्ड ₹6.05 लाख करोड़ तक पहुंच गई, जो पिछले साल की तुलना में 25% ज्यादा थी। बाजार जगमगा रहे थे और हर जगह सेल के पोस्टर लगे थे। इस बार लोगों ने जीएसटी में कटौती का फायदा उठाते हुए खूब खरीदारी की। लेकिन क्या यह बढ़ती अर्थव्यवस्था की झलक थी या एक सीमित ग्रह पर अंतहीन उपभोग की हमारी बिगड़ती हुई लत का लक्षण? यदि हमारी आय फिक्स है तो हमारे खर्च भी फिक्स होने चाहिए, अन्यथा आय से ज्यादा खर्च हमें दिवालिया बना देता है। ठीक इसी तरह यदि हमारे ग्रह का आकार फिक्स है, इसके सारे संसाधन फिक्स हैं तो हमें भी उसकी सीमाओं में जीवन जीना पड़ेगा। लेकिन सदियों से मनुष्य प्रजाति ऐसे जी रही है, मानो पृथ्वी के संसाधन अनंत हों। जिस तरह किसी भी मशीन या मनुष्य की काम करने की क्षमता सीमित होती है, उसी तरह हमारी धरती की क्षमता भी सीमित है। यदि हम एक साल की सैलेरी को एक साल में खर्च करें तो बैलेंस में रहेंगे। उसी तरह धरती एक वर्ष में जितना पैदा करती है, उसका उपभोग एक साल में करेंगे तो बैलेंस में रहेंगे। इसे बताने के लिए एक मापदंड है, जिसे अर्थ ओवर शूट डे के नाम से जानते हैं। यदि अर्थ ओवर शूट डे 31 दिसंबर को आता है तो इसका मतलब है कि हम धरती की साल भर की पैदा करने की क्षमता को एक साल में उपभोग कर रहे हैं। इस स्थिति में हम कह सकते हैं कि हम धरती पर सस्टेनेबल जीवन जी रहे हैं। परंतु आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इस वर्ष अर्थ ओवर शूट डे 24 जुलाई को ही आ गया। इसका मतलब यह है कि हमने 24 जुलाई तक ही धरती की सालभर की क्षमता के सारे संसाधन उपयोग कर लिए। 25 जुलाई से 31 दिसम्बर तक के जो संसाधन हम उपभोग करेंगे, वो अतिरिक्त होंगे। हम कह सकते हैं कि ये अतिरिक्त संसाधन उधार या चोरी के होंगे। मेरी दृष्टि से तो हर आधुनिक मनुष्य चोर ही है, वह अपने बच्चों और नाती-पोतों के संसाधन चुराकर जी रहा है। ​तिस पर भी वह अज्ञानवश कहता है कि जो मैं कर रहा हूं, सब अपने बच्चों के लिए कर रहा हूं। आज के दौर में इससे बड़ा मजाक नहीं हो सकता है। क्योंकि 30 वर्ष पहले जैसी शुद्ध हवा, पानी और खाना कोई भी मां-बाप आज अपने बच्चों को नहीं दे सकते, फिर चाहे जितने अमीर हों। अर्थ ओवर शूट डे के आकलन के अनुसार हम इस समय 1.8 धरती के संसाधनों का उपयोग कर रहे हैं, परंतु हमारे पास तो सिर्फ 1 ही धरती है। गणित के हिसाब से 1 धरती पर 1.8 धरती के बराबर संसाधनों का उपयोग करना मनुष्य प्रजाति का दिवालिया होने की दिशा में कदम है। इसी कारण से हवा, पानी, मिट्टी सब प्रदूषित हो रहे हैं, धरती गर्म हो रही है और जलवायु परिवर्तन हो रहा है। अगर हम 1.8 पृथ्वी के संसाधनों का उपभोग कर रहे हैं तो इससे निर्मित होने वाली समस्याओं का समाधान गणितीय रूप से स्पष्ट है : हमें अपनी खपत कम करके लगभग आधी कर देनी चाहिए। हमें कपड़े, बिजली, गाड़ी, ट्रैवल, घर का साइज, कचरा इत्यादि सभी के उपयोग को लगभग आधा करना चाहिए। क्योंकि हम धरती को खींच-तानकर बड़ा नहीं कर सकते। विज्ञान, टेक्नोलॉजी या सरकार इसमें हमारी कोई मदद नहीं कर सकते। हमें धरती की सीमितता को समझते हुए एक सीमित धरती पर अपनी जरूरतों को भी सीमित करना होगा। यह हमारी पसंद या नापसंद का सवाल नहीं है। यह एक सत्य है। और उस सत्य का पालन अगर हमने नहीं किया तो इस धरती पर मनुष्य का दिवालिया होना निश्चित है। कृपया बच्चों के नाम पर उनकी बर्बादी की इमारत न खड़ी करें। अपनी जरूरतों को आधा करें, हमें बस आधा ही चाहिए।(ये लेखक के निजी विचार हैं)