शेखर गुप्ता का कॉलम:लोकतंत्र के जनक बिहार में बदहाली क्यों?

Wait 5 sec.

बिहार इस बात पर गर्व करता रहा है कि दुनिया में सबसे पहले लोकतंत्र का जन्म उसी की सरजमीं पर हुआ। आपको वैशाली पहुंचाने वाले हाइवे के किनारे लगा एक साइनबोर्ड भी यह घोषणा करता दिखेगा : ‘विश्व के प्रथम गणतंत्र में आपका स्वागत है’। यह कोई लोककथा नहीं है। इसके कई ऐतिहासिक साक्ष्य मौजूद हैं। अपनी जानकारियों को ताजा करने के लिए आप पटना के शानदार संग्रहालय भी जा सकते हैं। लोकतंत्र यानी ऐसे गणतंत्र का विचार, जिसमें हर एक व्यक्ति को बोलने और चुनने की आजादी हो। यह भारत को बिहार की ओर से और दुनिया को भारत की ओर से सबसे बड़ी देन है। लेकिन बिहार के लिए लोकतंत्र कितना अच्छा साबित हुआ है? इसका उसे क्या लाभ मिला है? उसके समाज, उसकी जनता और अर्थव्यवस्था की जो हालत है, उससे तो यही लगता है कि उसे कुछ भी नहीं मिला। वहां कोई उद्योग नहीं हैं, टैक्स के रूप में कोई आय नहीं है, गुजारे भर की खेती के सिवाय वहां कोई आर्थिक गतिविधि नहीं है। उसकी प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा देश में सबसे कम है और हमारे सबसे धनी राज्य के 20% के बराबर है। और यह अंतर बढ़ता ही जा रहा है। इस राज्य की सबसे उत्पादक गतिविधि श्रम का निर्यात है- वह भी बेहतर आर्थिक स्थिति वाले राज्यों में ज्यादातर ऐसे रोजगारों के लिए, जिनसे न्यूनतम कमाई होती हो। हम देख सकते हैं कि आखिर किसी को कोई चिंता क्यों नहीं है? बिहार बाकियों से, अपने पड़ोसी राज्यों से भी इतना पीछे छूट गया है कि उसके मतदाता अपनी आज की स्थिति की तुलना सिर्फ अपनी पिछली स्थिति से करते हैं : क्या मैं अपने अभिभावकों से बेहतर स्थिति में हूं? इस सवाल का जवाब प्रायः ‘हां’ में होता है। क्या हमारे बच्चे बेहतर स्थिति में होंगे? हकीकत को देखें तो उम्मीद का जवाब भी ‘हां’ ही होता है। यह सोच आकांक्षाओं को निचले स्तर पर लाकर छोड़ देती है। बिहार के मतदाताओं की कई पीढ़ियां न्यूनतम अपेक्षाओं को लेकर जीती और संघर्ष करती रही हैं। सामंती और ऊंची जातियों के अत्याचारों से सुरक्षा मिलती रहे, तीन जून का खाना मिलता रहे, कानून-व्यवस्था की बुनियादी हालत ठीक रहे, बिजली और सड़क आदि की सुविधाएं मिलती रहें, इतना काफी है। लेकिन 2025 के भारत में अगर आपका सपना बस यही है तो यह दु:खद है। यही वजह है कि ‘रेवड़ी’ बांटने की निंदा करने वाले नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार आज उन्हीं सपनों को पूरा करने की राजनीतिक पेशकश कर रहे हैं। उनके प्रतिद्वंद्वी भी राज्य के 2.76 करोड़ परिवारों के एक व्यक्ति को सरकारी नौकरी देने का वादा कर रहे हैं। यह कोई क्रूर मजाक नहीं है। यह नीतीश के 20 साल के शासन के बाद के बिहार की सच्चाई है। यह उस राज्य के लिए चिंताजनक है जिसकी राजनीतिक संस्कृति की जड़ें गहरी, जीवंत व साहसपूर्ण हैं। बिहार न होता तो गांधी गांधी न होते। वे 1915 में दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे और चम्पारण में जबरन नील की खेती करवाने वाले अंग्रेज ठेकेदारों के खिलाफ अपने सत्याग्रह से दुनिया का ध्यान आकर्षित किया। उस इलाके में आज भी भारत के सबसे गरीब राज्य के कुछ सबसे गरीब जिले मौजूद हैं। वहां लोग आज भी कितने गरीब, उदासीन और अभावग्रस्त हैं, यह देखना हो तो उस क्षेत्र का दौरा कीजिए। तब आप कल्पना कर सकेंगे कि गांधी के समय ये कैसी अवस्था में जी रहे होंगे। जेपी संयोग से बिहारी थे, लेकिन बिहार के लोगों में राजनीतिक जागरूकता और हिम्मत न होती तो क्या वे लोकनायक कहे जाते? उनके आंदोलन को बिहार के लोगों की ताकत हासिल थी और उसने पूरे भारत को इतने नाटकीय रूप से प्रभावित किया था कि इंदिरा गांधी ने घबराकर इमरजेंसी लगा दी थी। इसके चलते 1977 में वे चुनाव हार गईं। गांधी के बाद 20वीं सदी के भारत में जेपी सबसे बड़ी नैतिक शक्ति के रूप में उभरे और उन्होंने थोड़े समय के लिए राजनीतिक उपलब्धि भी हासिल की। बिहार ने कांग्रेस को राष्ट्रीय स्तर पर जिस पतन की ओर धकेला, उससे वह कभी उबर नहीं सकी। अगर गांधी और जेपी के उत्कर्ष का श्रेय बिहार को जाता है, तो हम 1960 वाले दशक में उभरे कर्पूरी ठाकुर की भी बात करें। तब तक इस राज्य को एक पूर्व-निर्धारित विकल्प के रूप में ऊंची जाति के निर्वाचित मुख्यमंत्री मिलते रहे थे। समस्तीपुर के एक साधारण नाई परिवार से उभरे कर्पूरी ठाकुर ने इस चलन को चुनौती दी और इसे बदल डाला। और यह केवल बिहार के लिए नहीं हुआ। उन्होंने निचली मानी जाने वाली जातियों के सशक्तीकरण के लिए सामाजिक न्याय के आंदोलन को जन्म दे दिया, जो छह दशक बाद आज भी जारी है। कर्पूरी ठाकुर ने उन सामाजिक समीकरणों के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाई, जिन्होंने कांग्रेस को पहली बार 1967 में कई राज्यों में बहुमत से वंचित कर दिया। बिहार की संयुक्त विधायक दल की सरकार, जिसमें वे शिक्षा तथा दूसरे मंत्रालयों की जिम्मेदारी सम्भालने के साथ उप-मुख्यमंत्री बने, ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकी, लेकिन उन्होंने उस नई राजनीति की नींव डाल दी, जिसे मंडलवादी राजनीति कहा जाता है। लिच्छवी काल के लोकतंत्र से लेकर कर्पूरी ठाकुर के सामाजिक न्याय, जेपी की संपूर्ण क्रांति, निचले वर्गों के सशस्त्र वामपंथी आंदोलनों और उसके जवाब में ऊंची जातियों की रणवीर सेना तक बिहार की जमीन भारत में कहीं और की जमीन के मुकाबले क्रांतियों के लिए ज्यादा उपजाऊ रही है। इसके बावजूद बिहार इतना पीछे क्यों रह गया? कौन-सा अभिशाप उसका पीछा कर रहा है? जिस धरती ने सबसे ज्यादा क्रांतियों को जन्म दिया है लगता है कि बिहार में सिर्फ राजनीति ही आगे बढ़ी है, बाकी सब ठहरा रह गया है। बिहार की उपजाऊ जमीन पूरे भारत में सबसे ज्यादा क्रांतियों को जन्म देने वाली रही है। इसके बावजूद बिहार इतना पीछे क्यों रह गया? क्या राजनीति का स्थायी जुनून उसकी बदहाली की मूल वजह है?(ये लेखक के अपने विचार हैं)