भारत सरकार की रिपोर्ट 'चिल्ड्रन इन इंडिया 2025' के मुताबिक, भारत के 5-9 साल के बच्चों में से एक तिहाई यानी करीब 33% बच्चों को हाई ट्राइग्लिसराइड्स की समस्या हो सकती है। ये आंकड़े चौंकाने वाले हैं। आमतौर पर ये समस्या वयस्कों को होती है और मोटे लोगों को अधिक होती है। अब बच्चे भी इसका शिकार हो रहे हैं। अगर समय रहते ध्यान नहीं दिया गया तो इन बच्चों को भविष्य में गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। इससे फैटी लिवर, हार्ट डिजीज, डायबिटीज, हाई बीपी जैसी बीमारियां हो सकती हैं। अगर बच्चा बहुत चिप्स, नमकीन खाता है। कोल्ड ड्रिंक पीता है या घंटों तक मोबाइल लेकर बैठा रहता है। तो यह और भी ज्यादा खतरनाक हो सकता है। हालांकि, थोड़ी कोशिश करके ट्राइग्लिसराइड्स का लेवल नॉर्मल किया जा सकता है। आज ‘फिजिकल हेल्थ’ में ट्राइग्लिसराइड्स की बात करेंगे। साथ ही जानेंगे कि- ट्राइग्लिसराइड्स क्या है? ट्राइग्लिसराइड्स शरीर में एक तरह का फैट है। ये खाने में मौजूद फैट, जैसे घी, तेल, मक्खन से आता है। साथ ही, अगर हम ज्यादा कैलोरी वाली चीजें खाते हैं – जैसे चॉकलेट, सोडा या ज्यादा चावल-रोटी तो शरीर इन्हें ट्राइग्लिसराइड्स में बदलकर स्टोर कर लेता है। ये बाद में एनर्जी के लिए इस्तेमाल होते हैं। अगर ये ज्यादा जमा हो जाएं, तो ब्लड वेसल्स में चिपक जाते हैं, जो दिल की धमनियों को ब्लॉक कर सकते हैं। इससे फैटी लिवर की समस्या हो जाती है। बच्चों के लिए ट्राइग्लिसराइड्स का नॉर्मल लेवल क्या है? 10 साल से कम उम्र के बच्चों में ये 75 mg/dL से कम होना चाहिए। 10-19 साल के किशोरों में 90 mg/dL से कम होना चाहिए। अगर 10 साल के बच्चे में 100 mg/dL से ज्यादा है तो ये हाई लेवल माना जाता है। ट्राइग्लिसराइड्स लेवल ब्लड टेस्ट से पता चलता है, जो 8-12 घंटे फास्टिंग के बाद किया जाता है। बच्चों में क्यों बढ़ रहा है ट्राइग्लिसराइड्स? 'चिल्ड्रन इन इंडिया 2025' रिपोर्ट के अनुसार, 5-9 साल के 33% बच्चों में ट्राईग्लिसराइड्स लेवल हाई पाया गया है। इससे 16% से ज्यादा किशोर प्रभावित हैं। भारत में बच्चों में ये समस्या तेजी से बढ़ रही है। यह क्यों हो रहा है? आजकल बच्चे जंक फूड ज्यादा खा रहे हैं। वे ज्यादातर समय बर्गर, पिज्जा और कोल्ड ड्रिंक्स पर निर्भर रहते हैं। स्क्रीन टाइम बढ़ गया है और बाहर खेलना या आउटडोर एक्टिविटीज बहुत कम हो गई है। इसके पीछे मोटापा भी बड़ा कारण है। रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रीमैच्योर बर्थ वाले बच्चे या कम वजन वाले बच्चे भी रिस्क में हैं। प्रदूषण और फैमिली हिस्ट्री भी असर डालती है। ये सिर्फ शहरों तक सीमित नहीं है, गांवों में भी इसका आंकड़ा बढ़ रहा है। ट्राइग्लिसराइड्स है या नहीं, कैसे पहचानें? ज्यादातर मामलों में बच्चों में इसके स्पष्ट लक्षण नहीं दिखते हैं। ये 'साइलेंट किलर' की तरह काम करता है। लेकिन कभी-कभी त्वचा पर पीले-चिकने दाने निकल आते हैं। ये दाने अक्सर आंखों के पास या कोहनी पर होते हैं। अगर लेवल बहुत हाई है, जैसे, 500 mg/dL से ज्यादा है तो तो पेट दर्द या पैंक्रियाटाइटिस (अग्नाशय में सूजन) हो सकता है, जो जानलेवा साबित हो सकता है। अगर बच्चा बहुत थकान महसूस करता है, सांस फूलती है या वजन तेजी से बढ़ रहा है तो सतर्क हो जाएं। सबसे अच्छा तरीका है कि रेगुलर ब्लड टेस्ट करवाएं। 9-11 साल की उम्र में पहला टेस्ट जरूरी है। अगर फैमिली में किसी को हाई कोलेस्ट्रॉल है, तो बच्चों में 2 साल की उम्र से ही चेक करवाना चाहिए। ट्राइग्लिसराइड्स के रिस्क फैक्टर्स ट्राइग्लिसराइड्स जेनेटिक और लाइफस्टाइल दोनों कारणों से हाई हो सकता है। बच्चों में मुख्य कारण ओबिसिटी, अनकंट्रोल्ड डायबिटीज, थायरॉइड की समस्या, किडनी या लिवर डिजीज है। डाइट में ज्यादा चीनी, रिफाइंड कार्ब्स और सैचुरेटेड फैट्स बड़ा रोल निभाते हैं। एक्सरसाइज की कमी से भी ये जमा हो सकता है। समय से पहले जन्म या कम वेट वाले बच्चों को ज्यादा रिस्क होता है। फैमिली हिस्ट्री, स्टेरॉयड्स या इन्फेक्शन के कारण भी हो सकता है। इससे बच्चों का भविष्य कैसे प्रभावित होता है? बच्चों में हाई ट्राइग्लिसराइड्स उन्हें बचपन में उतना प्रभावित नहीं करता है, लेकिन उम्र बढ़ने के साथ यह खतरनाक होता जाता है। इससे कोरोनरी आर्टरी डिजीज, स्ट्रोक, टाइप-2 डायबिटीज, हाई बीपी, ओबेसिटी और पेरिफेरल आर्टरी डिजीज का रिस्क बढ़ सकता है। लंबे समय तक रहने पर पैंक्रियाटाइटिस हो सकता है, ये बहुत दर्दनाक होता है और मौत का कारण बन सकता है। अगर अभी कंट्रोल न किया गया तो 30 साल से कम उम्र में ही बच्चा हार्ट अटैक का शिकार हो सकता है। रिपोर्ट में 5% किशोरों में हाई बीपी भी पाया गया, जो दिल्ली में 10% तक है। ये सब मिलकर बच्चों की एक्टिव लाइफ छीन सकता है। हालांकि, जल्दी डाइग्नोज करने से 80% रिस्क कम हो जाता है। अगर हाई ट्राइग्लिसराइड्स है तो क्या करें? अगर बच्चे में हाई ट्राइग्लिसराइड्स डाइग्नोज हुआ है तो घबराएं नहीं। ये कंट्रोल हो सकता है। डॉक्टर से एक्शन प्लान बनवाएं। रेगुलर टेस्ट और मॉनिटरिंग करें। यह ध्यान रखें कि इसमें दवाओं से ज्यादा रोल लाइफस्टाइल का है। डाइट में बदलाव करें, चीनी कम दें या बिल्कुल न दें और जंक फूड्स न दें। बच्चों को क्या खाने को नहीं देना है, पूरी लिस्ट ग्राफिक में है। कैसे सुधरेगा ट्राइग्लिसराइड्स लेवल? डॉ. सुनील सरीन कहते हैं कि अगर लाइफस्टाइल सही कर ली तो ये समस्या भी खत्म हो जाएगी। यह देख लिया है कि क्या खाने को नहीं देना है। अब करना क्या है? खाने में फल-सब्जियां, दलिया और मोटा अनाज ज्यादा शामिल करें। ओमेगा-3 रिच फूड्स जैसे अलसी के बीज दें। रोज 30-60 मिनट खुले मैदान में खेलने दें, साइकिलिंग करवाएं, स्विमिंग करवाएं। टीवी-स्क्रीन टाइम कम करें। ध्यान दें कि वजन कंट्रोल में बना रहे। पूरी लिस्ट ग्राफिक में देखिए- अगर बच्चा नवजात है अगर प्रीमैच्योर बेबी है तो ब्रेस्ट मिल्क दें, जो नेचुरल फैट बैलेंस करता है। डॉक्टर की सलाह से जरूरी सप्लीमेंट्स लें। ट्राइग्लिसराइड्स से जुड़े कुछ आम सवाल और जवाब सवाल: बच्चों में ट्राइग्लिसराइड्स क्यों बढ़ रहा है? जवाब: ज्यादातर जंक फूड, कम एक्सरसाइज और मोटापे से ये समस्या बढ़ रही है। रिपोर्ट के मुताबिक, 33% 5-9 साल के बच्चे प्रभावित हैं। प्रीमैच्योर बर्थ भी वजह है। सवाल: लक्षण न दिखने पर इसका पता कैसे चल सकता है? जवाब: ब्लड टेस्ट आसान तरीका है। 9-11 साल में पहला चेकअप करवाएं। अगर फैमिली हिस्ट्री हो तो 2 साल से शुरू करें। सवाल: जन्म के समय किन कारणों से इसका रिस्क बढ़ता है? जवाब: प्रीमैच्योरिटी या लो बर्थ वेट से रिस्क बढ़ता है। ब्रेस्टफीडिंग से बचाव। डॉक्टर मॉनिटर करें। बच्चों का स्वास्थ्य हमारी जिम्मेदारी है। एक छोटा सा बदलाव करें, जैसे जैसे शाम को पार्क ले जाना या घर पर सलाद बनाना, उनके भविष्य को संवार सकता है। अगर आपको हाई ट्राइग्लिसराइड्स का शक हो, तो आज ही डॉक्टर से बात करें। याद रखें कि प्रिवेंशन इलाज से बेहतर उपाय है। ……………… ये खबर भी पढ़िए फिजिकल हेल्थ- हाई हील्स से टेढ़े हो सकते हैं पैर: दुनिया के 23% लोगों को बूनियन डिजीज, पुरुषों से ज्यादा रिस्क महिलाओं को बूनियन पैरों की एक कॉमन समस्या है, जिसमें पैर के अंगूठे के पास हड्डी जैसा उभार आ जाता है। अंगूठा उंगलियों की तरफ मुड़ जाता है। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ में पब्लिश एक स्टडी के मुताबिक, पूरी दुनिया में लगभग 23% एडल्ट्स को यह समस्या है। पूरी खबर पढ़िए...