डॉ. अनिल जोशी का कॉलम:बारिश अब किसी एक ही मौसम तक सीमित क्यों नहीं रह गई है?

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अक्टूबर की शुरुआत हो चुकी है, लेकिन बारिश का दौर अभी भी जारी है। दो घटनाएं प्रमुख रूप से सामने आई हैं। नेपाल में लगातार हो रही वर्षा ने बिहार की स्थिति एक बार फिर गंभीर कर दी है। कोसी नदी इस कदर उफान पर है कि कई गांवों को लील जाने को तत्पर दिखाई देती है। अक्टूबर का महीना सामान्यतः शांत रहता है। मानसून प्रायः सितम्बर के मध्य या अंत तक अपनी अंतिम वर्षा देकर विदा ले लेता है। किंतु इस बार ऐसा नहीं हुआ। उत्तराखंड में भी इस बार अक्टूबर को लेकर यही अनुमान लगाया जा रहा है कि वर्षा का दौर अभी थमेगा नहीं। वहीं दूसरी ओर जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश सहित देश के कई अन्य राज्यों की स्थिति भी ऐसी ही है। इस बार के मानसून में अगर सबसे पहले किसी क्षेत्र ने प्रतिकूल प्रभाव झेला, तो वह उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर और हिमाचल रहा है। भारी तबाही, जान-माल की क्षति और विनाशकारी घटनाओं की खबरें लगातार आती रहीं। पहले लोग आसमान की ओर इस उम्मीद से देखा करते थे कि मानसून आएगा, खेत लहलहाएंगे, धरती पर हरियाली छा जाएगी और मिट्टी की सौंधी खुशबू नए मौसम के आगमन का संकेत देगी। लेकिन आज स्थिति उलट है- अब लोग आसमान की ओर इस चिंता से देखते हैं कि बरसात कब थमेगी और कब बादल अपने प्रवाह को रोकेंगे। मगर ऐसा होता दिखाई नहीं दे रहा। इस वर्ष का मानसून पहाड़ों से लेकर देश के अन्य कोनों तक अपने प्रभाव की नई कहानी दर्ज कर रहा है। अक्टूबर में वर्षा होने का अर्थ स्पष्ट है- समुद्र अभी शांत नहीं हुए हैं। सभी जानते हैं कि समुद्र अपनी वाष्पोत्सर्जित हवाओं को भेजकर ही पहाड़ों को तर करते हैं, और वही पानी नदियों के रूप में हम सबके बीच बहता है। पहले यह प्रक्रिया अप्रैल से लेकर जुलाई-अगस्त तक सीमित रहती थी, परंतु अब यह क्रम लम्बा खिंच गया है। आज स्थिति यह है कि यह समस्या केवल हमारे देश तक सीमित नहीं रही, बल्कि पूरी दुनिया में भारी वर्षा और अतिवृष्टि जैसी घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। धरती के तापमान पर अभी तक कोई नियंत्रण नहीं हो पाया है। औसतन बढ़ते तापमान के कारण समुद्रों में निरंतर हलचल बनी हुई है, और इसी कारण वर्षा का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा। एक ओर पहाड़ अतिवृष्टि से आहत हैं, तो दूसरी ओर समुद्र चक्रवातों के नए रूप में लोगों को प्रभावित कर रहे हैं। हाल ही में रागो जैसे चक्रवातों ने फिलीपींस, चीन, मलेशिया और अन्य देशों को भी प्रभावित किया। वहीं दूसरी तरफ, पहाड़ों में हो रही आपदाएं देशभर में सुर्खियां बटोर रही हैं। सबसे चिंताजनक बात यह है कि अक्टूबर भी ऐसे ही संकेत दे रहा है, मानो मौसम और वर्षा ने यह ठान लिया हो कि उन्हें बरसना ही है- प्रकृति के प्रति मनुष्य के व्यवहार को सबक सिखाना ही है। अब तक हम इस बात को पूरी तरह समझ नहीं पाए हैं और न ही समझने का प्रयास कर रहे हैं कि इन घटनाओं के पीछे वास्तविक कारण क्या हैं। सच्चाई यह है कि हर व्यक्ति, हर राज्य और हर देश कहीं न कहीं इस स्थिति के लिए दोषी है। हमने विकास के साथ-साथ विलासिता को इतना बढ़ा लिया कि धरती के संसाधनों का अत्यधिक दोहन होने लगा। विकास की आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता। परंतु समस्या यह है कि हमने विकास की सीमाओं को लांघते हुए विलासिता को ही जीवन का पर्याय बना लिया। गांव और शहर दोनों स्तरों पर हमने अपने जीवन को सुविधाजनक बनाने के नाम पर धरती को गर्म करने में बड़ा योगदान दिया है। यदि हम अपने फुटप्रिंट पर नजर डालें और उसकी तुलना चार दशक पहले से करें, तो साफ दिखेगा कि हमारी उपभोग की आदतें कई गुना बढ़ चुकी हैं। शहरों की स्थिति तो गंभीर है- वे आज इस हद तक आरामदेह जीवन के गुलाम हो चुके हैं कि उनके लिए जीवन का अर्थ केवल कारों, गैजेट्स और सुविधाओं तक सीमित हो गया है। इस तरह की विलासिता प्रकृति के पूर्णतः विपरीत है। अगर यह बारिश अक्टूबर के बाद भी जारी रही, तो भी आश्चर्य नहीं होगा, क्योंकि हमने पृथ्वी का तापमान इतना बढ़ा दिया है कि समुद्रों को सांस लेने का अवसर तक नहीं मिल पा रहा।(ये लेखक के निजी विचार हैं)