गाजा में 20-सूत्रीय युद्धविराम योजना को बड़े धूमधाम से पेश किया गया है और यह वहां के लोगों के लिए बेहतरी का वादा करती है। यह गाजा के पुनर्निर्माण, बंधकों की वापसी और उस युद्ध को समाप्त करने का भी आश्वासन देती है, जिसने गाजा को मलबे में बदल दिया है। लेकिन इस योजना की आकर्षक भाषा के पीछे एक गहरी समस्या है। यह परस्पर भरोसे के बजाय हताशा पर आधारित है। अलबत्ता महीनों की बमबारी, भुखमरी और विस्थापन से तबाह हो चुके गाजा के लोगों को तो लगभग कोई भी युद्धविराम स्वीकार्य ही होगा। इस योजना को ट्रम्प का समर्थन प्राप्त है, वहीं इजराइल ने इसका स्वागत किया है। यह पूर्ण युद्धविराम के बाद गाजा के विसैन्यीकरण और एक अंतरिम प्रशासन के तहत उसके पुनर्निर्माण का प्रयास करती है। निगरानी का कार्य एक शांति बोर्ड के हाथ में होगा, जिसमें अंतर्राष्ट्रीय हस्तियां शामिल होंगी, लेकिन दिलचस्प यह है कि इसमें यूएन शामिल नहीं होगा। संक्षेप में इसका मकसद गाजा के राजनीतिक परिदृश्य से हमास को मिटाकर उसकी जगह एक तटस्थ फिलिस्तीनी समिति को स्थापित करना और खाड़ी व पश्चिमी देशों के पैसों से इस क्षेत्र का पुनर्निर्माण करना है। यह शांति समझौते से ज्यादा एक बिजनेस मॉडल जैसा लगता है। इस योजना की बड़ी खामी हमास को जानबूझकर बाहर रखना है। उसे एक ऐसी पराजित शक्ति के रूप में देखा जा रहा है, जो बस धुंधलके में गायब हो जाएगी। लेकिन इतिहास गवाह है कि विचारधाराएं आदेश पर कभी नहीं मरतीं। हमास सिर्फ एक मिलिशिया नहीं है; यह एक गहरा सामाजिक-राजनीतिक नेटवर्क है, जिसका दायरा पीढ़ियों तक फैला हुआ है। इसमें कोई शक नहीं कि यह एक आतंकवादी संगठन भी है, लेकिन गाजा की राजनीति और समाज में इसकी जड़ें गहरी हैं। यह कल्पना करना कि दशकों के संघर्ष के बाद यह स्वेच्छा से हथियार डालकर विलीन हो जाएगा- खामख्याली है। सच यह है कि हमास रणनीतिक रूप से तो युद्धविराम स्वीकार कर सकता है, लेकिन वह इस राहत का उपयोग फिर से संगठित होने और पुनर्निर्माण के लिए करेगा। विचारधारा, आस्था और पहचान से प्रेरित आंदोलन थकान से फीके नहीं पड़ते; वे अपने लिए नई भूमिकाएं तलाशते हैं। जब तक गाजा को लेकर बनाई जाने वाली कोई भी योजना हमास को एक गैर-उग्रवादी शक्ति में बदलने के लिए राजनीतिक स्पेस मुहैया नहीं कराती, गाजा एक ज्वालामुखी बना रहेगा। इस योजना का प्रस्ताव रखने वालों की विश्वसनीयता भी उतनी ही कमजोर है। ट्रम्प को तो लगता है जैसे शांति कोई लेन-देन की चीज हो। गाजा में निवेश और री-डेवलपमेंट पर उनका जोर एक मानवीय मिशन कम और एक कॉर्पोरेट परियोजना ज्यादा लगता है। क्या इतने जटिल संघर्ष को समझौतों और परिणामों की सरल भाषा से सुलझाया जा सकता है? इसके अलावा, ट्रम्प का यूएन पर अचानक विश्वास भी हैरान करने वाला है। अपने राष्ट्रपति कार्यकाल के दौरान बार-बार यूएन की अवहेलना करने के बाद अब वे उसी संस्था से सहायता, सुरक्षा और निगरानी की उम्मीद करते हैं। फिर यूएन को ही शांति स्थापना के लिए नेतृत्व करने देने- जैसा कि उसने लेबनान और गोलान हाइट्स में प्रभावी ढंग से किया था- के बजाय एक नया शांति बोर्ड क्यों बनाया जाए? यह योजना हमास से बहुत मांग भी करती है, जबकि इजराइल से इतना नहीं मांगती। गाजा से इजराइल की वापसी सुरक्षा मानकों से जुड़ी होगी, जिन्हें वह स्वयं परिभाषित और सत्यापित करेगा। इससे उसे इस प्रक्रिया पर वीटो का अधिकार मिल जाता है। कोई भी छोटी-सी घटना गाजा में फिर से इजराइली फौजों की घुसपैठ या युद्धविराम को स्थगित करने का औचित्य सिद्ध कर सकती है। वहीं इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि इजराइल पहले हमला नहीं करेगा। योजना के समर्थकों का तर्क है कि यह टू-स्टेट के विचार को पुनर्जीवित कर सकती है। जबकि हकीकत यह है कि यह उसे ठंडे बस्ते में डाल देगी। गाजा को एक टेक्नोक्रैटिक प्रशासन के अधीन करके और वेस्ट बैंक का कामकाज लड़खड़ाते फिलिस्तीनी प्राधिकरण को सौंपकर यह फिलिस्तीन के बिखराव को संस्थागत रूप देती है। पश्चिम एशिया में शांति अमेरिका, इजराइल और कुछ खाड़ी राजतंत्रों का सीमित-भागीदारों वाला क्लब नहीं हो सकती। भारत भी इजराइल के साथ अपने मजबूत संबंधों, खाड़ी में महत्वपूर्ण ऊर्जा निर्भरताओं और शांतिदूत के रूप में वार्ता में शामिल होने का हकदार है। अगर इसे स्वीकार कर लिया जाए, तो भी 20-सूत्रीय योजना का जीवनकाल ट्रम्प प्रशासन से ज्यादा नहीं हो सकता। शांति के लिए संस्थाओं की जरूरत होती है, व्यक्तित्वों की नहीं। गाजा समस्या दीर्घकालिक समाधान की मांग करती है।(ये लेखक के अपने विचार हैं।)