पिछले हफ्ते जब प्रधानमंत्री बिहार में महिला रोजगार योजना की शुरुआत करते हुए 75 लाख महिलाओं के खाते में 10-10 हजार रु. ट्रांसफर कर रहे थे तो उन्हें राजनीति की इस नई हकीकत का आभास था कि महिलाएं एक ताकतवर वोट बैंक के तौर पर उभर रही हैं। कोई दल उन्हें नजरअंदाज नहीं कर सकता। नीतीश कुमार ने महिलाओं की बढ़ती ताकत को भांपते हुए बहुत पहले ही इस बड़े वोट बैंक को अपने पाले में लाने के प्रयास शुरू कर दिए थे। 2005 में सत्ता संभालते ही उन्होंने स्कूली छात्राओं को साइकिल और यूनिफॉर्म वितरित की। यह कदम 2010 के चुनाव में गेम चेंजर साबित हुआ। 20 वर्ष पहले नीतीश ने जिन छात्राओं की सहायता की, आज वे अपने घरों में मां की भूमिका में हैं और परिवार के फैसलों को प्रभावित करने की हैसियत रखती हैं। फिर 2016 में नीतीश ने शराबबंदी लागू की। हालांकि इस निर्णय के लिए उन्हें आलोचना झेलनी पड़ी, लेकिन यह कदम घरेलू हिंसा रोकने के लिए महिलाओं की भावना के सम्मान में उठाया गया था। और अब नीतीश ने 10 हजार रुपए के प्रावधान वाली यह मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना इस आशा के साथ लागू की है कि अगले चुनाव में महिलाएं सत्ता विरोधी लहर के भंवर से उन्हें निकाल लेंगी। तमिलनाडु में अगले साल चुनाव हैं। करूर हादसे पर हो रही राजनीति में भी महिला फैक्टर सामने आया है। अभिनेता विजय की रैली में मची भगदड़ में मारे गए 41 लोगों में बहुत-सी महिलाएं और बच्चे थे। माना जा रहा था चुनावी अखाड़े में विजय की एंट्री से सत्तारूढ़ द्रमुक को फायदा होगा, क्योंकि विजय सत्ता विरोधी वोटों को बांट देंगे। लेकिन करूर हादसे के बाद द्रमुक और विजय के बीच नई जंग शुरू हो गई। महिला वोटरों में विजय की लोकप्रियता ने द्रमुक को चिंता में डाल दिया। ऐसे में द्रमुक विजय की ऐसी छवि बनाने में जुट गई है कि उन्हें महिला-बच्चों की मौत की परवाह नहीं है। बहुत से राज्यों में महिलाएं अब बड़ी संख्या में वोट डालने लगी हैं। यह बताता है कि घर से बाहर के मसलों में उनका दखल बढ़ रहा है और वोट देने को लेकर वे परिवार से अलग खुद का नजरिया भी बनाने लगी हैं। 2024 के महाराष्ट्र चुनाव से पहले औरंगाबाद जिले की दलित और ओबीसी महिलाओं से मुझसे कहा था कि ‘हमारे पति चाहे जिसे वोट दें, हम तो एकनाथ शिंदे को ही वोट देंगी।’ मुख्यमंत्री के तौर पर शिंदे ने बहुचर्चित लाडकी बहन योजना लागू की थी, जिसमें पात्र महिलाओं को प्रति माह 1500 रुपए देने का प्रावधान था। महिलाओें ने इस योजना को अपनी आर्थिक स्वायत्तता के तौर पर देखा। वैसे शिंदे की यह योजना शिवराज सिंह चौहान द्वारा मध्यप्रदेश में लागू की गई लाड़ली बहन योजना की तर्ज पर थी। अब नीतीश भी इस डगर पर आ गए हैं। बिहार की स्थायी निवासी 18 से 60 वर्ष की गैर-करदाता महिलाओं के लिए 10 हजार रुपए वाली यह योजना शुरू की गई है। यदि महिलाओं का व्यवसाय सफल होता है तो उन्हें 2 लाख रुपए अतिरिक्त भी दिए जाएंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सियासी सफलता में भी महिलाओं का खासा योगदान रहा है। मोदी ने पहले ही दिन से इस वर्ग की ताकत भांपते हुए उनके लिए बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, सीधे बैंक खातों में पैसा हस्तांतरण और शौचालय निर्माण जैसी योजनाएं बनाना शुरू कर दिया था। ये योजनाएं महिलाओं में अपने अधिकारों और अपनी संभावित भूमिका के प्रति बढ़ती जागरूकता का परिणाम थीं। इसीलिए महिलाएं बड़ी संख्या में वोट डालने लगी हैं। बिहार में 2010, 2015 और 2020 में महिलाओं ने पुरुषों से ज्यादा वोट दिया था। 2 015 में पुरुषों और महिलाओं के मतदान का अंतर 10% तक था। जबकि 2005 के चुनाव में महिलाएं पुरुषों से 7% पीछे थीं। 1962 में यह अंतर 23% तक था। 2020 में बिहार की 243 में से 167 विधानसभा सीटों पर महिलाओं ने पुरुषों से ज्यादा मतदान किया। खासतौर से उत्तर बिहार में, जहां एनडीए को जीत मिली। पारंपरिक तौर पर महिलाएं वोट बैंक नहीं थीं। अमूमन वे अपने परिवार के कहने पर या जाति के आधार पर वोट करती थीं। लेकिन आज स्थिति तेजी से बदल रही है। हालांकि 2023 में संसद में पारित हुए महिला आरक्षण विधेयक को अभी लागू नहीं कर भविष्य में होने वाले परिसीमन से जोड़ दिया गया है। महिलाओं की ताकत समझते हुए प्रियंका गांधी ने भी 2022 के यूपी चुनाव में महिलाओं को 40% टिकट दिए थे। कुछ महत्वपूर्ण विधानसभा चुनाव हमारे सामने हैं, यह देखना रोचक होगा कि महिला फैक्टर उनमें कैसे अपना असर दिखाएगा। पारम्परिक तौर पर महिलाएं भारतीय राजनीति में मजबूत वोट बैंक नहीं मानी जाती थीं। अमूमन वे अपने परिवार के कहने पर या जाति के आधार पर ही वोट देती थीं। लेकिन आज स्थिति तेजी से बदल रही है और पार्टियों की उन पर नजर है।(ये लेखिका के अपने विचार हैं।)