ज्यां द्रेज का कॉलम:बच्चों पर ध्यान नहीं देंगे तो विकसित भारत कैसे बनेगा?

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पिछले महीने मैंने एक दोस्त के साथ हरियाणा के नूंह जिले में एक दिन बिताया। दिल्ली से नूंह का रास्ता गुरुग्राम होकर जाता है, जहां चिकने हाईवे, विशाल मॉल और आलीशान रिसॉर्ट नजर आते हैं। लगता है, जैसे आप दुबई या शंघाई में हों। नूंह बस 50 किमी आगे है। वहां का नजारा बिहार या यूपी के किसी वंचित इलाके जैसा है। चारों तरफ खाली खेत दिखाई दे रहे हैं। कुछ बच्चे पानी से भरे खेतों में मछली पकड़ रहे हैं। शांत भैंसें इधर-उधर टहल रही हैं। गांव भी सुस्त हैं। हम नूंह से करीब पांच किमी दूर एक गांव में रुके। वहां प्राथमिक विद्यालय में 189 बच्चे हैं, लेकिन एक ही शिक्षक है। वह अपने कार्यालय में असहाय बैठा था। बच्चे बिना यूनिफॉर्म के इधर-उधर घूम रहे थे। जरा भी अनुशासन नहीं था। पढ़ाई दूर की बात थी। उसी परिसर में एक आंगनवाड़ी केंद्र था। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता आयशा सक्षम और सक्रिय लग रही थी, लेकिन उसकी स्थिति स्कूल के शिक्षक से बेहतर नहीं थी। ईंधन का भुगतान नहीं होने के कारण इस इलाके की आंगनवाड़ियों में मध्याह्न भोजन कई महीनों से नहीं पक रहा है। पहले आयशा स्कूल के मिड-डे मील से बच्चों को थोड़ा-बहुत खाना देती थी, लेकिन अब वह इतना भी नहीं कर पा रही है क्योंकि उसे ई-केवाईसी पर ध्यान देने का आदेश दिया गया है। वजह यह है कि सरकार बच्चों के टेक-होम राशन के वितरण में चेहरे की पहचान (फेस रिकग्निशन) लगाना चाहती है। इस कारण आयशा का सारा समय ई-केवाईसी में ही बीत जाता है। ई-केवाईसी एक जटिल प्रक्रिया है। इसकी शुरुआत पोषण ऐप में मां का आधार नंबर दर्ज करने से होती है। फिर उस आधार नंबर से जुड़े मोबाइल नंबर पर एक ओटीपी आता है। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता को मां की नई फोटो के साथ इस ओटीपी को पोषण ऐप में दर्ज करना होता है। फिर ऐप इस फोटो का मिलान आधार डेटाबेस में मौजूद मां की फोटो से करता है। अगर दोनों तस्वीरें मेल खाती हैं, तो ई-केवाईसी पूरी हो जाएगी। आयशा को इस प्रक्रिया में कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। मसलन, कुछ महिलाओं का आधार फोटो नंबर से लिंक नहीं है। कई बार मां का आधार उसके पति के मोबाइल से लिंक है, और जब फोन पर ओटीपी पूछा जाता है, तो पति घबराता है। कभी-कभी ओटीपी देर से आता है, या आता ही नहीं। कभी-कभी ऐप अटक जाता है या कोई ऐसा एरर मैसेज दिखाता है, जिसे आयशा समझ नहीं पाती। कभी तस्वीरें मेल नहीं खातीं। बार-बार कोशिश करने से अक्सर ई-केवाईसी प्रक्रिया में काफी समय लगता है। तब तक कुछ माताएं नाराज या शंकालु हो जाती हैं। पिछले दो महीने से आयशा इसमें लगी हुई है, लेकिन ई-केवाईसी का काम अभी भी अधूरा है। इस बीच, आंगनवाड़ी ठप पड़ी है। हमने दूसरे गांव में एक और आंगनवाड़ी देखी, इस उम्मीद में कि वहां स्थिति बेहतर होगी। लेकिन, कनेक्टिविटी की समस्या के कारण वहां स्थिति और भी बदतर थी। कई हफ्ते की कड़ी मेहनत के बाद आंगनवाड़ी कार्यकर्ता 150 में से केवल 28 माताओं का ही ई-केवाईसी पूरा कर पाई थी। वह इतनी तनाव में थी कि उन्हें रात में ई-केवाईसी के बुरे सपने आने लगे। हाल के वर्षों में केवल नंूह में ही आंगनवाड़ी कार्यक्रम को कमजोर नहीं किया गया है। केंद्रीय बजट में इस कार्यक्रम का आवंटन आज, वास्तविक रूप से, दस साल पहले की तुलना में कम है। कई साल से बाल पोषण के लिए लागत मानदंड नहीं बढ़ाए गए हैं। केवल ऐप के ऊपर ऐप लगाए जा रहे हैं। लेकिन सवाल है- अगर बच्चों पर ध्यान नहीं देंगे तो विकसित भारत कैसे बनेगा? सीढ़ी पर कदम-दर-कदम चढ़ना पड़ता है। लेकिन भारत कई बार सीधे शीर्ष पर पहुंचने की कोशिश करता नजर आता है। बच्चों को पका हुआ भोजन सुनिश्चित करने के बदले में हम आंगनवाड़ियों में फेस रिकग्निशन की तकनीक लगा रहे हैं। मध्याह्न भोजन में रोज एक अंडा शामिल करना शायद एक बेहतर विचार हो। बेशक, इससे हाई-टेक कंपनियों का मुनाफा नहीं बढ़ेगा। इनमें से कुछ कंपनियों के दफ्तर उन्ही महलों में हैं, जो वापस लौटते समय गुरुग्राम में फिर से दिखाई दे रहे थे। वे सीढ़ी के शीर्ष पर खुश हैं। लेकिन अगर सीढ़ी का निचला हिस्सा कमजोर हो, तो क्या सीढ़ी टिक पाएगी? किसी सीढ़ी पर हमें कदम-दर-कदम चढ़ना पड़ता है। लेकिन भारत कई बार सीधे ही शीर्ष पर पहुंचने की कोशिश करता नजर आता है। बच्चों को पका हुआ भोजन सुनिश्चित करने के बदले में हम आंगनवाड़ियों में फेस रिकग्निशन की तकनीक लगा रहे हैं! (ये लेखक के अपने विचार हैं)