सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को मुस्लिमों में तलाक-ए-हसन प्रथा की निंदा की। कोर्ट ने तलाक-ए-हसन की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते मामले को संविधान पीठ को भेजने का संकेत दिया। कोर्ट ने सवाल किया क्या आधुनिक और सभ्य समाज में ऐसी परंपरा स्वीकार की जा सकती है? जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस उज्जल भुइयां और जस्टिस एन कोटिश्वर सिंह की बेंच ने वकील या किसी अन्य व्यक्ति के जरिए तलाक का नोटिस भेजने पर भी नाराजगी जताई। कोर्ट ने कहा- यह वैध कैसे हो सकता है? तलाक और तलाकनामा के नोटिस पर पति के साइन होने चाहिए। कोर्ट ने कहा- कोई तीसरा पक्ष महिला को उसके पति की ओर से तलाक नोटिस कैसे दे सकता है? क्या यह कानूनी है? तलाक देने के लिए इस तरह के अविष्कार कैसे किए जाते हैं? समुदाय इस तरह की प्रथाओं को कैसे बढ़ावा दे रहा है? इसमें पूरा समाज शामिल है। सुधार के लिए कुछ किया जाना चाहिए। अगर समाज में घोर भेदभावपूर्ण प्रथाएं हैं, तो कोर्ट को दखल देना होगा। क्या है तलाक-ए-हसन? तलाक-ए-हसन में पति हर महीने एक बार ‘तलाक’ कहता है। अगर तीन महीने तक पति-पत्नी के बीच सहवास नहीं होता, तो तीसरी बार ‘तलाक’ कहने पर तलाक मान्य हो जाता है। लेकिन अगर पहले या दूसरे महीने में सहवास हो जाता है, तो तलाक की प्रक्रिया रद्द मानी जाती है। साथ ही, उसने पति की ओर से नोटिस भेजने की प्रथा की निंदा की। तलाक-ए-हसन के माध्यम से, एक पुरुष तीन महीने की अवधि में हर महीने एक बार "तलाक" शब्द का उच्चारण करके विवाह को समाप्त कर सकता है। 2017 में, शीर्ष अदालत ने तीन तलाक, जो मुस्लिम समुदाय में तलाक का एक प्रचलित रूप है, को असंवैधानिक घोषित कर दिया था, क्योंकि उसने इसे मनमाना और मुस्लिम महिलाओं के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन पाया था।