नंदितेश निलय का कॉलम:आज कोई भी न्यूज ब्रेक करने का इतना उतावलापन क्यों है?

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चलिए, याद करते हैं महाभारत के उस प्रसंग को, जब धर्मराज युधिष्ठिर एक अर्धसत्य का सहारा लेते हैं। वे अपने गुरु द्रोणाचार्य को पराजित करने के लिए उनके पुत्र अश्वत्थामा की झूठी मृत्यु की सूचना देते हैं, लेकिन कुछ अस्पष्ट तरीके से। वे कहते हैं- "अश्वत्थामा हतः नरो वा कुंजरो वा', यानी अश्वत्थामा मारा गया, वह आदमी भी हो सकता है या हाथी भी। ये कहते हुए वे अपनी आवाज धीमी रखते हैं। इसका परिणाम यह होता कि द्रोणाचार्य अपने पुत्र की मृत्यु को सच मान बैठते हैं। हाल ही में तमाम मीडिया चैनलों ने भी पूर्ण सत्य के शोर में उस कलाकार की मृत्यु की घोषणा कर दी, जो उस समय अस्पताल में स्वास्थ्य-लाभ ले रहे थे। फेक न्यूज के दौर में तमाम न्यूज चैनल्स चीख-चीखकर सुबह से ही दर्शकों को यह बताने में लगे थे कि एक मशहूर कलाकार की अस्पताल में मृत्यु हो गई है। और फिर मानो शोक-संदेशों की बाढ़-सी आ गई। उनके प्रशंसकों में उदासी-सी छा गई। लेकिन वे तो जीवित थे। तो फिर उनकी मृत्यु का यह शोर आखिर किस तरह के सामाजिक व्यवहार की स्वीकार्यता थी? इस घटना ने सामाजिक व्यवहार की सीमाओं को इतनी निर्दयता से तोड़ा है कि भविष्य में यह इस खतरनाक सम्प्रेषण को ‘न्यू नॉर्मल’ बना सकता है। लेकिन उस परिवार पर क्या बीतती होगी, जिसके किसी सदस्य को तमाम न्यूज चैनल्स मृत घोषित कर दें? हो सकता है उस समय परिवार का कोई अन्य सदस्य दूर हो और किसी चैनल के द्वारा ही उसे गलत खबर मिल जाए। और उसे सुनकर कोई दुर्घटना या हृदयाघात हो जाए, फिर? ऐसे निष्ठुर और लापरवाह सम्प्रेषण की आखिर कौन जिम्मेदारी लेगा? यहां तो यह हाल है कि कोई माफीनामा या पश्चाताप भी नहीं सुनाई नहीं पड़ा। आज फेक न्यूज की आड़ में मानो सबकुछ जायज हो चुका है। और इसका परिणाम यह हो रहा है कि सबकुछ संदेह के घेरे में आ रहा है। कुछ भी हो, लेकिन मृत्यु के समाचार में थोड़ी ज्यादा जिम्मेदारी और संजीदगी तो होनी ही चाहिए। यह कैसा युग आ गया है, जहां मृत्यु की खबर की सत्यता को जांचे बिना न्यूजरूम बस किसी समाचार को प्रेषित करने में फर्स्ट होना चाहता है। उस खबर की सत्यता को जांचे बिना एक शोक से भरा माहौल बनाना कहां तक उचित है? अगर कोई बीमार है या हॉस्पिटल में है, तो उसे जीते-जी मृत घोषित कर देना एक नई तरह की हिंसा है, जहां भावनाएं गैर-जिम्मेदाराना ढंग से अभिव्यक्त हो रही हैं। इस युग में तो अपनी गलती मानना सबसे बड़ी गलती मानी जा रही है। तो क्या हम और हमारा सम्प्रेषण एक नई तरह की सामाजिक निष्ठुरता को बढ़ा रहा है? एक मनुष्य या एक समाज के रूप में? यह प्रश्न फिर से दोहराया जाना जरूरी है। ऐसा नहीं लगता कि हम अपने विचारों में कई बार संकुचित भी होते जा रहे हैं? और बस एक मृत भाव से इस दौर में सब कुछ को वायरल कर देना चाहते हैं। आखिर यह हम कैसा समाज बना रहे हैं? हम एक तरफ एआई और चैटजीपीटी से मनुष्य की बुद्धि से आगे निकालना चाहते हैं तो वहीं दूसरी ओर आंखों में, बुद्धि में, जबान पर एक निष्ठुरता पाले हुए हैं। सत्य अब ‘मेरा और तुम्हारा’ बनता जा रहा है। और हम सभी दिनों-दिन अपने पूर्वग्रहों के गुलाम होते जा रहे हैं। इंसान तो मंगल पर रहना चाहता है और चांद के स्वभाव को भी समझना चाहता है लेकिन अपने आप से बहुत दूर निकल चुका है। हमें यह महसूस होगा कि एक ओर हम अपनी प्रतिक्रियाओं में कुछ लापरवाह होते जा रहे है, वहीं दूसरी ओर असहमति एक कभी समाप्त न होने वाली विद्वेष का रूप लेती जा रही है। आज कोई किसी को कुछ भी कह डालता है और यह भी नहीं सोचता कि उसको ऐसी प्रतिक्रिया देने की जरूरत क्या थी। ऊंची आवाज के साथ व्यक्तिगत प्रतिक्रियाओं का दौर ही चल पड़ा है। पिछले दो दशक में संसार को संवाद का गिरता स्तर और एक व्यावहारिक अशिष्टता घेरती जा रही। अब लोग सुनते ही हैं तो बोलने के लिए। और जब बोलते हैं तो सुनना नहीं चाहते। संवाद की शिष्टता ने अपनी प्रासंगिकता खो दी है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)