नीरज कौशल का कॉलम:साम्प्रदायिक मुद्दों को तूल न देना एनडीए के पक्ष में गया

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"हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई- सबको बहुत-बहुत धन्यवाद'- ये शब्द नीतीश कुमार के पटना स्थित आवास के बाहर एक बड़े पोस्टर पर सजे हुए हैं। विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े पांच हिंदुओं द्वारा प्रायोजित इस पोस्टर में एक बिल्डर, एक जद(यू) प्रवक्ता, एक राज्य प्रशासक एक डॉक्टर और एक सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हैं। इसमें नीतीश को एक बाघ के साथ आगे बढ़ते हुए दिखाया गया है, जो बिहार के लोगों और खासतौर पर एनडीए में अपनी प्रमुख सहयोगी पार्टी भाजपा तक साम्प्रदायिक सद्भाव का संदेश पहुंचाते हुए प्रतीत होते हैं। यह पोस्टर बिहार विधानसभा चुनावों के एक सबसे कम चर्चित पहलू पर प्रकाश डालता है- साम्प्रदायिक उन्माद का अभाव, जो कि हाल के भारतीय चुनावों में दुर्लभ है। विधानसभा चुनावों के दौरान बिहार के विभिन्न क्षेत्रों में यात्रा करते हुए मुझे राजनीतिक रैलियों में हिंदुत्व का बहुत कम जिक्र मिला। मतदाता भी कल्याणकारी योजनाओं, भ्रष्टाचार और बिहार की जातिगत राजनीति पर अपने विचार व्यक्त करने में व्यस्त थे, लेकिन साम्प्रदायिक राजनीति के प्रति उदासीन थे। किसी भी प्रमुख राजनीतिक दल ने अपने प्रचार में हिंदू-मुसलमान नहीं किया। जब मैंने मतदाताओं से विशेष रूप से धार्मिक विभाजन के मुद्दों के बारे में पूछा, तो हिंदुओं और मुसलमानों दोनों ने मेरे प्रश्नों को यह कहकर खारिज कर दिया कि वे सद्भाव से रहते हैं। यह सच है कि चुनाव धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर नहीं लड़ा गया था। लेकिन भाजपा भी जनता के बीच साम्प्रदायिक उन्माद फैलाने से बचती रही। इसे बिहार में आम राजनीति कहा जा सकता है, जहां ऐतिहासिक रूप से जाति धर्म पर भारी पड़ती है। फिर भी, पूर्णिया में स्थानीय व्यापारियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों के एक समूह ने साम्प्रदायिक सद्भाव के संदेश का श्रेय मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को दिया। एक ने कहा कि नीतीश कुमार ने भाजपा और राजद के चरमपंथियों के बीच एक बेहतरीन संतुलन बनाया है। एक तरफ तो उन्होंने भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीति को बिहार से दूर रखा है, वहीं दूसरी तरफ उन्होंने लालू यादव की जाति की राजनीति को भी अंकुश में रखा है। अन्य लोग भी इस आकलन से सहमत थे। एनडीए के लिए भी बिहार में साम्प्रदायिक राजनीति के बजाय विकास पर ध्यान केंद्रित करना फायदेमंद साबित हुआ है। प्रारम्भिक आंकड़े बताते हैं कि मुस्लिम वोटों में उसकी हिस्सेदारी बढ़ी है। सीमांचल क्षेत्र में, जहां 47% आबादी मुस्लिम है (राज्य में यह 18% है), एनडीए ने अपनी संख्या 14 सीटों से बढ़ाकर 16 कर ली है। ऐतिहासिक रूप से मुसलमानों ने राजद और उसके गठबंधनों को भारी वोट दिया है। उदाहरण के लिए, 2015 के चुनावों में 80% मुसलमानों ने महागठबंधन को वोट दिया था और 2020 में यह अनुपात 77% था। हालांकि इस बार- विशेष रूप से सीमांचल में ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के पुनरुत्थान ने मुस्लिम वोटों को विभाजित कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप एनडीए को अप्रत्याशित लाभ हुआ। लेकिन अगर एनडीए ने साम्प्रदायिक मुद्दों पर अपना प्रचार अभियान चलाया होता तो परिणाम उसके लिए कम अनुकूल हो सकते थे। लेकिन विडम्बना यह है कि जहां प्रचार अभियान साम्प्रदायिक मुद्दों से दूर रहा, वहीं एनडीए ने जनसंख्या के अनुपात में बहुत कम मुस्लिम उम्मीदवार उतारे और अन्य दलों की तुलना में भी वे बहुत कम रहे। भाजपा ने तो कोई मुस्लिम उम्मीदवार नहीं उतारा, वहीं जदयू ने केवल 4 उतारे। जबकि प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी ने 40 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे, एआईएमआईएम ने 64 और राजद ने 30 उतारे थे। चुनाव परिणामों में भी मुस्लिम प्रतिनिधित्व में गिरावट देखी गई। 2015 के चुनावों में, निर्वाचित विधायकों में से 10% मुस्लिम थे, 2020 में यह संख्या 8% रह गई और अब 2025 के चुनावों में 5% से भी कम रह गई है। यह राज्य की जनसंख्या में मुसलमानों के हिस्से के एक तिहाई से भी कम है। राष्ट्रीय विमर्श में एसआईआर को लेकर जो शोरगुल हावी रहा, वह बिहार के गांवों और शहरों से लगभग नदारद था। जहां तक बिहार के मतदाताओं का सवाल है, तो ऐसा लग रहा था जैसे एसआईआर हुआ ही नहीं। जाहिर है, एनडीए द्वारा वोट चुराने का राहुल गांधी का दावा मतदाताओं को रास नहीं आया। एक संभावित अनुमान यह भी है कि जब राज्य सरकार ने चुनावों से ठीक पहले महिलाओं के लिए एक विशाल वेलफेयर पैकेज पेश किया, तो उसी के अनुपात में अन्य मुद्दों का महत्व कम हो गया। चुनाव धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर नहीं लड़ा गया था। लेकिन भाजपा भी जनता के बीच साम्प्रदायिक उन्माद फैलाने से बचती रही। इसे बिहार में आम राजनीति कहा जा सकता है, जहां ऐतिहासिक रूप से जाति धर्म पर भारी पड़ती है। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)