श्रीनगर से दिल्ली तक फैली एक खौफनाक साजिश ने उजागर कर दिया कि आज भारत में आतंकवाद किस तरह से विकसित हो रहा है- पेशेवर, नेटवर्क-आधारित और सामाजिक भरोसे के साथ-साथ भौतिक लक्ष्यों पर भी अपना निशाना साधता हुआ! श्रीनगर की जामा मस्जिद पर चुपचाप चिपकाए गए जैश-ए-मोहम्मद के कुछ पोस्टरों से शुरू हुई यह वारदात अब विचलित कर देने वाली घटनाओं की एक शृंखला में बदल गई है। जो पहले फौरी उकसावे जैसा लग रहा था, वह एक व्यापक साजिश का पहला सूत्र निकला- जो क्षेत्रों, व्यवसायों और डिजिटल नेटवर्क तक फैली हुई थी। दिल्ली के लाल किला मेट्रो स्टेशन के बाहर हुए एक आकस्मिक विस्फोट के कारण यह साजिश उजागर हो गई। एक बड़े षड्यंत्र का पर्दाफाश हो गया। दिल्ली-फरीदाबाद के असाधारण रूप से परिष्कृत मॉड्यूल का सच देश के सामने आ गया। इस मॉड्यूल की खासियत यह थी कि इसमें पेशेवर डॉक्टर और उच्च शिक्षित लोग शामिल पाए गए। अब ऐसा लगता है कि लाल किले पर हुआ विस्फोट अप्रशिक्षित हाथों से आकस्मिक रूप से हो गया एक अमोनियम नाइट्रेट धमाका था। यह किसी अनुभवी विशेषज्ञ नहीं, किसी यूट्यूब आईईडी डॉक्टर की करतूत थी। अनुभवहीनता यह भी बताती है कि ये लोग अपनी क्षमता से कहीं बड़े काम का बीड़ा उठा बैठे थे। अपुष्ट खुफिया जानकारी बताती है कि 32 से ज्यादा इम्प्रूवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस (आईईडी) तैयार किए जा रहे थे, जिनमें एक साथ विस्फोट किए जाने पर भारी तबाही मच सकती थी। बाद में श्रीनगर में हुए विस्फोट को भी सही संदर्भ में समझना होगा। जब्त किया गया अमोनियम नाइट्रेट नियमित एफआईआर प्रक्रिया के लिए वहां ले जाया गया था और भंडारण के दौरान बड़ी चूक हो गई। लेकिन इस प्रशासनिक भूल से मुख्य साजिश से हमारा ध्यान नहीं भटकना चाहिए। ये दोनों घटनाएं मिलकर एक ऐसे नेटवर्क का खुलासा करती हैं, जो शुरू में किए गए आकलन से कहीं बड़ा, महत्वाकांक्षी और खतरनाक है। फरीदाबाद मॉड्यूल का सबसे खास पहलू इसमें पेशेवर डॉक्टरों की सक्रिय सहभागिता है। कश्मीर के आतंकी इकोसिस्टम में लंबे समय से एकेडमिक्स के लोग शामिल रहे हैं, लेकिन वे शायद ही कभी हिंसा में शामिल हुए हों। उग्रवादी वारदातें करने वाले आमतौर पर गरीब और कम पढ़े-लिखे होते थे। लेकिन अब यह रेखा धुंधला गई है, क्योंकि शिक्षित कट्टरपंथी आसानी से शहरों के लोगों के बीच घुल-मिल जाते हैं, वे शक की गुंजाइश भी नहीं पैदा करते और डिजिटल दुनिया में उनकी अच्छी पैठ होती है। इस गिरोह के कुछ सदस्यों की विदेश यात्राओं की खबरें अंतरराष्ट्रीय संपर्क या संभावित पलायन के रास्ते बनाने का भी संकेत देती हैं। यह बदलाव आकस्मिक नहीं है। यह कट्टरपंथ के एक परिष्कृत डिजिटल इकोसिस्टम द्वारा संभव हुआ है। पेशेवरों का कट्टरपंथीकरण वैश्विक रुझानों को दर्शाता है। आईएसआईएस ने अपनी चमकदार प्रचार पत्रिकाओं दबीक और रुमिया के साथ इस मॉडल का बीड़ा उठाया था, जिनका उद्देश्य जानबूझकर इंजीनियरों, चिकित्सकों और पहचान या उद्देश्य की तलाश में शिक्षित युवाओं को लक्षित करना था। मजहबी तालीम, गुस्से और छद्म बौद्धिकता का यह मिश्रण एक शक्तिशाली मनोवैज्ञानिक हथियार बन गया। दक्षिण एशियाई चरमपंथी नेटवर्कों ने भी इसी रणनीति को अपनाया है। एन्क्रिप्टेड चैट समूह, चुनिंदा स्टडी सर्कल, सिलेक्टिव मजहबी फीड और शिकायतों पर आधारित ऑनलाइन नैरेटिव ऐसी पाइपलाइनें बनाते हैं, जो हताश लोगों को आकर्षित करती हैं। कट्टरपंथ अब प्रशिक्षण शिविरों में नहीं, बल्कि घरों और मोबाइल फोन पर पल रहा है। फरीदाबाद मॉड्यूल कश्मीरियों और शेष भारत के बीच धीरे-धीरे फिर से बन रहे नाजुक विश्वास को चोट पहुंचाने के लिए रचा गया प्रतीत होता है। सामाजिक तनाव के शुरुआती संकेत पहले ही स्पष्ट हो चुके हैं : लोग अल्पसंख्यकों को घर देने से इनकार कर रहे हैं, कश्मीरियों से घर खाली करने को कहा जा रहा है और नागरिक एक-दूसरे को डर की नजर से देख रहे हैं। आतंकवाद के नुमाइंदे ठीक यही चाहते हैं। उनकी असल कामयाबी बम धमाके में नहीं, बल्कि भारत को अंदरूनी तौर पर तोड़ देने में है। ऐसे में नागरिकों को सतर्क रहना चाहिए, पर पूर्वग्रही नहीं होना चाहिए। एक सतर्क समाज देश की रक्षा करता है; जबकि एक भयभीत समाज उसे कमजोर कर देता है। जम्मू-कश्मीर में कड़ी मेहनत से अर्जित सामाजिक विश्वास को फिर से कम नहीं होने देना चाहिए। भारत के दुश्मनों का लक्ष्य महज हिंसा करना नहीं, बल्कि विश्वास को क्षति पहुंचाना भी है। ऐसे में यह लड़ाई अब केवल बमों के बारे में नहीं है। यह नेटवर्क, नैरेटिव और लोगों को बांटने की खामोश कोशिशों के बारे में भी है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)