राहुल गांधी की वोटर अधिकार यात्रा ने विपक्ष की रणनीति में एक बड़े परिवर्तन की तरफ इशारा किया है। अगर इस तब्दीली को समझें तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि यात्रा के पीछे योजना क्या थी और विपक्ष इससे किन राजनीतिक लाभों की अपेक्षा कर रहा है। वोटर अधिकार यात्रा से पहले होता यह था कि कांग्रेस पार्टी मुख्य तौर पर लोकसभा चुनाव के कुछ पहले ही अपने महत्त्व की दावेदारी कर पाती थी। बाकी समय उसे गैर-भाजपा क्षेत्रीय शक्तियों के दबदबे के मुकाबले दूसरे नम्बर पर रहना पड़ता था। वोटर अधिकार यात्रा इस लिहाज से गेमचेंजर साबित हुई कि वह पहली बार एक प्रदेश में विधानसभा चुनाव के ठीक पहले राजद जैसी शक्तिशाली क्षेत्रीय पार्टी के मुकाबले कांग्रेस के सर्वोच्च नेता राहुल गांधी के नेतृत्व और रणनीति की प्रधानता प्रदर्शित करते हुए दिखाई दी। यह प्रधानता इसलिए भी उल्लेखनीय है कि क्षेत्रीय शक्ति के नेतागण तो राहुल को प्रधानमंत्री बनाने की अपील कर रहे थे, लेकिन राहुल को इसके उत्तर में राजग के नेता को मुख्यमंत्री बनाने की अपील करने की जरूरत नहीं पड़ी। राहुल ने तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनाने का न तो आह्वान किया और न ही इसका खंडन किया। इसके बावजूद इंडिया गठबंधन की एकता में कोई दरार नहीं पड़ी। और तो और, राहुल ने इंडिया गठबंधन के सभी घटकों को अपने नेतृत्व में इस यात्रा में शामिल करके कांग्रेस की नेतृत्वकारी हैसियत को रेखांकित करने में कामयाबी हासिल की। यात्रा ने कांग्रेस की क्षेत्रीय रणनीति का उद्घाटन कुछ इस तरह किया कि वह उसकी राष्ट्रीय रणनीति के पूरक के तौर पर उभर आई। मसलन, राहुल हर जगह संविधान की लाल किताब दिखाकर कहते हैं कि हमें संविधान की रक्षा करनी है। वे जातिगत जनगणना की बात करते हैं और सामाजिक न्याय का प्रश्न फिर से स्थापित करने की कोशिश में लगे दिखते हैं। अधिकार यात्रा के दौरान उन्होंने एक संविधान रक्षा सम्मेलन किया, जिसमें बड़े पैमाने पर अति-पिछड़ी जनता ने भागीदारी की। सम्मेलन के मंच पर कांग्रेस के पारम्परिक नेता नहीं थे। वहां बिहार की अति-पिछड़ी बिरादरियों के नेता थे, जिनसे राहुल संवाद कर रहे थे, और उन्हें ही बोलने का मौका दिया जा रहा था। ऐसा होते हुए पहली बार देखा गया। वरना होता यह था कि महागठबंधन का नेतृत्व ऐसी कोई कोशिश ही नहीं करता था। नतीजतन, अति-पिछड़ी जातियों के मतदाता केवल नीतीश में ही अपना राजनीतिक भविष्य देखने के लिए मजबूर हो जाते थे। इन बेहद गरीब और वंचित समूहों को लगता था कि यादवों के दबदबे वाले महागठबंधन में जा कर उन्हें कुछ मिलने वाला नहीं है। मुख्यमंत्री पद के लिए तेजस्वी के नाम की स्पष्ट घोषणा न करके राहुल इन जातियों को जो संदेश देना चाह रहे थे, उसमें तेजस्वी की भी रणनीतिक सहमति प्रतीत हो रही थी। तेजस्वी जानते हैं कि 2020 में बिहार का सबसे बड़ा दल बनकर भी वे सत्ता प्राप्त करने से वंचित रह चुके हैं। वे यह भी जानते हैं कि जब तक एनडीए के वोटों में से कम से कम एक हिस्सा उनके शक्तिशाली यादव-मुसलमान गठजोड़ का दामन नहीं थामेगा, तब तक वे नीतीश-भाजपा गठजोड़ को पराजित नहीं कर सकते। इसलिए इस बार कांग्रेस उस चैनल की भूमिका निभाने मैदान में उतरी है, जिसके जरिए शायद अति-पिछड़ों के कम से कम एक हिस्से को एनडीए के दायरे से बाहर निकाला जा सके। इससे पहले भी चुनावी धांधली के आरोप लगते रहे हैं, लेकिन यह यात्रा इस प्रश्न पर जनांदोलन खड़ा करने का भी पहला प्रयास है। पहली नजर में यह सफल लग रहा है। इसने लोगों के दिमाग में एक सवाल तो पैदा कर ही दिया है कि कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है। चुनाव आयोग के खिलाफ भी देश में कभी आंदोलन नहीं हुआ था। लेकिन आयोग ने मतदाता सूचियों का विशेष गहन पुनरीक्षण करके विपक्ष के हाथ में एक मुद्दा थमा दिया है। क्षेत्रीय शक्ति के नेतागण तो राहुल को प्रधानमंत्री बनाने की अपील कर रहे हैं, लेकिन राहुल को इसके उत्तर में तेजस्वी को मुख्यमंत्री बनाने की अपील करने की जरूरत नहीं पड़ी। इसके बावजूद इंडिया गठबंधन में कोई दरार नहीं पड़ी।(ये लेखक के अपने विचार हैं)