सुनीता नारायण का कॉलम:अब जलवायु-आपातकाल के दौर में आ चुके हैं हम

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उत्तर भारत में इस बारिश के मौसम में हुई तबाही को व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। विशाल क्षेत्र जलमग्न हो गए। घर, स्कूल और अस्पताल तहस-नहस हो गए। सड़कें तबाह हो गईं और खेत जलमग्न हो गए। एक के बाद एक बादल फटने की घटनाओं से बड़े-बड़े पहाड़ ढह गए। हालात को देख कर जान-माल के नुकसान का अंदाजा ही लगाया जा सकता है। इस क्षेत्र में बारिश की यह तीव्रता सामान्य नहीं है। अगस्त के महीने में पंजाब में 31 में से 24 दिन भारी और अत्यंत भारी बारिश हुई। मौसम विभाग 112 मिमी से अधिक बारिश को ‘भारी’ और 204 मिमी से अधिक बारिश को ‘अत्यंत भारी’ के तौर पर वर्गीकृत करता है। उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में भी ऐसे ही हालात थे। हिमाचल प्रदेश ने सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए, क्योंकि पिछले तीन महीनों में 90% से अधिक दिनों तक वहां भारी और अत्यंत भारी बारिश हुई। सरकारी आंकड़ों के अनुसार बादल फटने से बाढ़ आने की 13 घटनाएं हुईं, जबकि 10 अन्य घटनाएं मीडिया द्वारा रिपोर्ट की गईं। जून और अगस्त के महीनों में पंजाब, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में सामान्य से लगभग 50% अधिक बारिश हुई। अगर इसे साप्ताहिक औसत के रूप में देखें तो तबाही का पैमाना और स्पष्ट हो जाता है। मसलन, पंजाब में अगस्त के अंतिम पखवाड़े में सामान्य से 400% अधिक बारिश हुई। हिमाचल में 28 अगस्त से 3 सितंबर के बीच राज्य में साप्ताहिक औसत से 300% अधिक बारिश हुई। इसी कारण हम इतने पैमाने पर तबाही देख रहे हैं।आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? नि:संदेह यह एक जलवायु-आपातकाल है। किसी भी कीमत पर विकास चाहने की लापरवाही इस विनाश में नजर आ रही है। जबकि आज पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन को बढ़ाने वाले उत्सर्जन को कम करने के लिए संघर्ष कर रही है। आगे ये प्रभाव और घातक होते जाएंगे। लेकिन अगर हम समझ पाएं कि सुधार का समय आ गया है तो निर्माण अलग तरीके से किया जा सकता है, ताकि अगली बार बाढ़ या बादल फटने से नुकसान कम हो।जलवायु कैसे बदल रही है। इसका बड़ा कारण मौसम प्रणाली में बदलाव है। हम जानते हैं गर्मी जितनी होगी, बारिश भी उतनी होगी और अपेक्षाकृत कम दिनों में होगी। पिछले मौसम में हमने यही देखा कि पूरे मौसम की बारिश महज चंद घंटों में ही बरस गई। लेकिन मौसम के इस पैटर्न में और भी बहुत कुछ चल रहा है। पश्चिमी विक्षोभ प्राकृतिक घटनाएं हैं, जहां भूमध्यसागरीय क्षेत्र से पैदा हुई हवाएं चक्रवात और बारिश लाती हैं। लेकिन इस बार तो मानो पश्चिमी विक्षोभ को बुखार-सा चढ़ गया। आमतौर पर दक्षिण-पश्चिम मानसून के दौरान एक या दो विक्षोभ आते हैं, लेकिन इस साल सितंबर के पहले सप्ताह तक 19 विक्षोभ आए। ये हवाएं वास्तव में मानसून की हवाओं से टकरा रही हैं और इसी कारण उत्तरी भारत और पाकिस्तान में विनाशकारी बारिश देखी गई। इसका और कोई कारण स्पष्ट नहीं, सिवाय इसके कि पश्चिमी विक्षोभ आर्कटिक से आने वाली जेट स्ट्रीम हवाओं से जुड़े हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण जैसे-जैसे आर्कटिक वायु तंत्र कमजोर हो रहा है, यह अन्य संबंधित वैश्विक वायु तंत्रों को प्रभावित कर रहा है।इस साल अरब सागर से पैदा होने वाले वायु तंत्रों में भी कुछ अलग घट रहा है, जो बंगाल की खाड़ी से आने वाली मानसून हवाओं को धकेल रहा है। यह कई सारे फैक्टर्स का मिला-जुला परिणाम है- जैसे समुद्र से लेकर आर्कटिक क्षेत्र तक बढ़ती गर्मी और भूमध्य रेखा एवं उत्तरी ध्रुव के बीच तापमान का कम होता अंतर। यह अस्थिरता अब बाढ़ के रूप में हमें प्रभावित कर रही है। लगता है कि प्रकृति हमसे बदला ले रही है। जलवायु परिवर्तन हमारी आर्थिक वृद्धि और लालच के लिए वायुमंडल में छोड़े उत्सर्जन का ही परिणाम है। विकास की होड़ का जो हमारा तरीका है, उससे हम इस समस्या को और जटिल बना रहे हैं। हम बाढ़ संभावित क्षेत्रों में इमारतें बना रहे हैं। जरूरत के अनुसार जल निकासी योजना नहीं बना रहे। पहाड़ी क्षेत्रों में अतिक्रमण कर वहां घर, सड़क, बांध बना रहे हैं। यह सोच ही नहीं रहे कि ये क्षेत्र भूकंप की दृष्टि से एक्टिव हैं। मैं और भी अधिक कह सकती हूं। लेकिन उम्मीद करती हूं कि जब मैं यह कह रही हूं कि अब बहुत हो चुका तो आप मेरी पीड़ा समझ रहे होंगे। अनुकूलन और विविध तरीके अपनाने की बातें करने का समय गुजर गया। अब हम जलवायु परिवर्तन के युग में जी रहे हैं। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)