Last Updated:September 17, 2025, 08:32 ISTइम्पैक्ट शॉर्ट्ससबसे बड़ी खबरों तक पहुंचने का आपका शॉर्टकटआखिर बार-बार बादल फटने की घटना क्यों हो रही है.देहरादून में मंगलवार को फटे बादल ने एक बार फिर इस व्यापक संकट की ओर दुनिया का ध्यान खींचा है. इस घटना में कम से कम 15 लोगों की जान गई है. इससे पहले इसी उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में इस मानसून सीजन में ही कई बार बादल फटने की घटनाएं हो चुकी हैं. इस दौरान भूस्खलन, नदियों में उफान, रिहायश वाले इलाकों में कीचड़ का जमाव और बाढ़ जैसी आपदा देखी गई. हाईवे-सड़कें टूट गए. जान-माल का भारी नुकसान हुआ.हालांकि, मानसून के सीजन में हिमालय के क्षेत्रों में ऐसी घटनाएं असामान्य नहीं हैं. लेकिन हाल के वर्षों में इनकी तीव्रता और आवृत्ति में वृद्धि चिंताजनक है. यह केवल प्राकृतिक घटना नहीं, बल्कि भू-आकृति विज्ञान (टोपोग्राफी) और जलवायु परिवर्तन का परिणाम है. इसने हिमालय को और अधिक संवेदनशील बना दिया है. मानसून इस सीजन में असामान्य रूप से सक्रिय रहा है. देश के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में पिछले डेढ़ महीने से लगातार बारिश हो रही है. बंगाल की खाड़ी में बने कम दबाव वाले सिस्टम सामान्य से अधिक उत्तर की ओर बढ़े हैं, जिससे हिमालय के इलाकों में तीव्र वर्षा हुई.इंडियन एक्सप्रेस में इसको लेकर एक डिटेल रिपोर्ट छपी है. रिपोर्ट के मुताबिक अगस्त में इस क्षेत्र में 34 फीसदी अधिक बारिश दर्ज की गई, जबकि जून-सितंबर तक कुल मानसून में 30 फीसदी से अधिक अधिशेष रहा. सितंबर के पहले भाग में वर्षा सामान्य से 67 फीसदी अधिक रही. यह अधिशेष वर्षा हिमालय की भू-आकृति के कारण और घातक हो जाती है. समतल मैदानों में 300 मिमी या अधिक बारिश 24 घंटों में सहन की जा सकती है, जैसे गोवा, कोकण, कर्नाटक के तटीय इलाके, केरल या मेघालय में होता है. लेकिन हिमालय में खासकर पश्चिमी हिमालय के जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के क्षेत्र में यही मात्रा विनाशकारी साबित होती है.हिमालय के क्षेत्रों में अधिक वर्षा क्योंहिमालय के क्षेत्रों में अधिक वर्षा का मुख्य कारण उनकी ऊंचाई और भू-आकृति है. पहाड़ी इलाकों में हवा तेजी से ऊपर की ओर चढ़ती है, जिसे ओरोग्राफिक लिफ्ट कहा जाता है. इससे विशाल बादल बनते हैं, जो ऊंचाई में तेजी से बढ़ते हैं और स्थानीय स्तर पर असामान्य रूप से अधिक वर्षा कराते हैं. यह हिमालय का सामान्य जलवायु पैटर्न है. उदाहरण के तौर पर 27 अगस्त को जम्मू-कश्मीर के ऊधमपुर में 24 घंटों में 630 मिमी बारिश हुई, जो गुजरात के राजकोट की एक साल की औसत वर्षा के बराबर है.लद्दाख के लेह में 24-26 अगस्त के बीच 48 घंटों में 59 मिमी बारिश दर्ज की गई, जो 1973 के बाद का रिकॉर्ड है. लेह में अगस्त में सामान्यतः 0-5 मिमी ही बारिश होती है और अधिकतम 24 घंटे की वर्षा 16 मिमी (2018) या 12.8 मिमी (2015) रही है. ऐसी चरम वर्षा पहाड़ों की ढलानों पर जमा पानी को तेज बहाव में बदल देती है, जो मिट्टी, बजरी और ढीली चट्टानों को बहा ले जाती है.पहाड़ी क्षेत्र अधिक संवेदनशील क्यों हैं?मैदानी इलाकों में तीव्र वर्षा के बाद पानी नदियों या जल स्रोतों में बह जाता है, लेकिन हिमालय में यह भूस्खलन, कीचड़ बहाव और फ्लैश फ्लड का कारण बनती है. पिछले दो सप्ताह में मंडी, कुल्लू, धराली, थराली और जम्मू में यही हुआ. जब नदियों के मुख्य प्रवाह अवरुद्ध हो जाते हैं, तो उफनता पानी या कीचड़ बसावटों में घुस जाता है, सड़कें और पुल टूट जाते हैं. हालांकि, सभी बादल फटने जैसी घटनाएं आपदा नहीं लातीं. यदि वर्षा पहाड़ी के ऐसे हिस्से में हो जहां भूस्खलन की प्रवृत्ति कम हो या मलबा नदी में न गिरे, तो नुकसान सीमित रहता है. लेकिन हिमालय में मानवीय हस्तक्षेप जैसे अंधाधुंध निर्माण, वनों की कटाई और सड़कें बनाने से ढलान अस्थिर हो गए हैं, जो आपदाओं को बढ़ावा देते हैं.जलवायु परिवर्तन की भूमिकाजलवायु परिवर्तन की भूमिका यहां सबसे चिंताजनक है. हाल के वर्षों में बड़े पैमाने पर मौसम प्रणालियों का दक्षिण की ओर खिसकना देखा गया है, विशेष रूप से वेस्टर्न डिस्टर्बेंस का. ये भूमध्य सागर से उत्पन्न पूर्व की ओर बढ़ने वाली हवा की धाराएं हैं, जो सर्दियों में उत्तरी भारत में वर्षा या बर्फबारी लाती हैं. लेकिन अब इनका दक्षिणी हिमालय की ओर खिसकना और दक्षिण-पश्चिम मानसून से मेल खाना वर्षा पूर्वानुमान को जटिल बना रहा है. वैश्विक तापमान वृद्धि को इसका मुख्य कारण माना जा रहा है. वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि भविष्य में हिमालयी क्षेत्रों में चरम वर्षा की घटनाएं अधिक आम होंगी, साथ ही मानसून के दौरान लंबे सूखे के दौर भी.आर्कटिक समुद्री बर्फ का पिघलना मानसून की इस रहस्यमयी भिन्नता में एक और कारक हो सकता है. ग्लोबल वार्मिंग से वायुमंडल में अधिक नमी संग्रहित हो रही है, जो एक बार वर्षा होने पर ‘सुपरचार्ज्ड’ तूफान पैदा करती है. यह स्थिति केवल प्राकृतिक नहीं, बल्कि नीतिगत चुनौती भी है. हिमालय भारत की जल, जैव विविधता और ऊर्जा का स्रोत है, लेकिन अनियोजित विकास और जलवायु परिवर्तन से यह संकटग्रस्त हो रहा है.सरकार को आपदा प्रबंधन मजबूत करने, पूर्व चेतावनी प्रणालियों को अपनाने और पर्यावरण संरक्षण पर जोर देना होगा. 2025 में सितंबर के मध्य तक उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में 67 फीसदी अधिशेष वर्षा के बाद यह स्पष्ट है कि हिमालय की भू-आकृति अब जलवायु परिवर्तन के साथ मिलकर अधिक घातक हो रही है. यदि समय रहते कदम न उठाए गए, तो ऐसी आपदाएं नियमित हो जाएंगी जो आर्थिक और मानवीय क्षति को बढ़ाएंगी.न्यूज़18 को गूगल पर अपने पसंदीदा समाचार स्रोत के रूप में जोड़ने के लिए यहां क्लिक करें।homenationउत्तराखंड, हिमाचल, जम्मू... यहीं क्यों फट रहे बादल, तबाही का हिमालय कनेक्शन?और पढ़ें