पवन के. वर्मा का कॉलम:साफ हवा कोई लग्जरी नहीं, नागरिकों का अधिकार है

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जिस तरह से हर साल दिल्ली, एनसीआर और उत्तर भारत का बड़ा हिस्सा प्रदूषण की आपदा से जूझता है, उसे देखकर आप पूछ सकते हैं कि भला सरकारें कब तक इसे नजरअंदाज कर सकती हैं? और एक-एक सांस के लिए जूझ रहे नागरिक भला कब तक इस घुटन को चुपचाप स्वीकार करते रहेंगे? जब एक्यूआई नियमित रूप से 450 से ऊपर की ‘गंभीर’ और ‘अत्यंत खतरनाक’ श्रेणियों को पार करता है तो यह स्तर किसी भी सभ्य समाज में सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल घोषित करने के लिए पर्याप्त होना चाहिए। वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार इसमें मनुष्य की औसत आयु 8.2 वर्ष तक घट जाती है। साथ ही हृदयाघात, स्ट्रोक, सांस सम्बंधी रोगों और अन्य दीर्घकालिक बीमारियों का खतरा भी तेजी से बढ़ता है। बच्चों के फेफड़े सर्वाधिक संवेदनशील होते हैं, जबकि बुजुर्ग और पहले से बीमार लोगों पर इसका बहुत बुरा असर होता है। यह मौसमी असुविधा नहीं, हर साल करोड़ों नागरिकों पर ढाया जाने वाला अत्याचार है। जब यह स्थिति हर साल निर्मित होती है तो इसका समाधान क्यों नहीं हो पा रहा है? क्या इस संकट का कोई समाधान नहीं? दुनिया के दूसरे देशों ने तो बताया है कि ऐसा नहीं है। कुछ साल पहले बीजिंग की हवा भी दिल्ली जितनी दमघोंटू हो गई थी। 2013 में चीनी सरकार ने ‘प्रदूषण के खिलाफ युद्ध’ का ऐलान किया। उत्सर्जन में कड़ी कटौती की गई, उद्योगों और वाहनों के लिए सख्त मानक तय किए और क्लीन एनर्जी की ओर तेजी से रुख मोड़ा गया। निरंतर और कठोर क्रियान्वयन का नतीजा यह हुआ कि बीजिंग सहित कई प्रमुख शहरों की वायु गुणवत्ता में ठोस सुधार देखने को मिला। हम हर साल तब ही क्यों जागते हैं जब आपदा हमारे सिर पर आ खड़ी होती है, जबकि हमें पहले से पता होता है कि अगर स्थायी और कठोर कदम नहीं उठाए गए, तो अगला साल भी ठीक वैसा ही होगा? निर्माण गतिविधियों पर अस्थायी रोक, आपातकालीन ग्रेडेड रिस्पॉन्स एक्शन प्लान के चरणों को लागू करना, पुराने डीजल वाहनों पर प्रतिबंध, स्कूलों को बंद करना, घरों में रहने की सलाह- ये सब केवल प्रतिक्रियात्मक, प्रतीकात्मक, अल्पकालिक उपाय हैं- समाधान नहीं। राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी स्पष्ट दिखती है। अभी-अभी समाप्त हुए संसद सत्र में वायु प्रदूषण संकट पर चर्चा के लिए समय तक नहीं निकाला गया, जबकि यह मुद्दा सूचीबद्ध था। इस स्तर की सरकारी उदासीनता आपराधिक कही जानी चाहिए और संविधान का सीधा उल्लंघन भी, क्योंकि सांस लेने के अधिकार को कुचलकर हम जीवन के अधिकार- जो एक मौलिक अधिकार है- को ही खतरे में डाल रहे हैं। प्रदूषण न तो नगर निगम की सीमाओं को मानता है और न ही राज्यों की। फिर भी दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश की सरकारों को साथ लेकर अब तक कोई संयुक्त समिति तक नहीं बनाई गई। न ही किसानों को पराली जलाने के व्यवहार्य आर्थिक विकल्प दिए गए- चाहे वह मशीनरी पर सब्सिडी हो, बायोफ्यूल के लिए प्रोत्साहन हो, फसलों में विविधता या कटाई के बाद बची चीजों पर वैल्यू-एडिशन हो। स्वच्छ सार्वजनिक परिवहन के विस्तार पर भी बड़ा निवेश नहीं हुआ, प्रदूषण फैलाने वाली औद्योगिक इकाइयों को न तो हटाया गया और न ही बंद किया गया, और निर्माण स्थलों पर धूल नियंत्रण तथा वाहनों के उत्सर्जन मानकों का सख्ती से पालन भी नहीं कराया जा सका है। सबसे ज्यादा हैरानी इस बात की है कि नागरिकों ने अभी तक इसके विरुद्ध कोई संगठित और प्रभावी आंदोलन क्यों नहीं किया, जो व्यवस्था को बदलाव लाने के लिए मजबूर कर सके? हम इतनी आसानी से हर चीज के अभ्यस्त क्यों हो जाते हैं? राष्ट्रगीत वंदे मातरम् के प्रति देश के मन में गहरे आदर की भावना है, लेकिन यह पूछना जरूरी है कि जब संसद के बाहर लोगों का दम घुट रहा था, तब राष्ट्रगीत के ऐतिहासिक संदर्भों पर पूरे दिन की बहस क्या सचमुच हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए थी? क्या संसद में बैठे लोग यह समझते हैं कि प्रदूषण भले साझा समस्या हो, उसका बोझ सब पर समान रूप से नहीं पड़ता है? जिनके पास संसाधन हैं, वो तो एयर प्यूरीफायर के पीछे शरण ले लेते हैं; लेकिन क्या साधनहीन लोग जहरीली हवा में सांस लेने को मजबूर रहेंगे? देश की बड़ी आबादी के पास रोजी-रोटी कमाने के लिए घर से निकलने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। क्या साधन-सम्पन्न वर्ग कभी उनके बारे में सोचता है? और क्या सरकार इस बात से अनभिज्ञ है कि राष्ट्रीय राजधानी में प्रदूषण की यह हालत हमारी अंतरराष्ट्रीय छवि पर बट्टा लगाती है, जबकि हम तीसरी सबसे बड़ी इकोनॉमी होने का दावा करते हैं? संसद में प्रदूषण पर चर्चा के लिए समय तक नहीं निकाला गया, जबकि यह मुद्दा सूचीबद्ध था। यह आपराधिक उदासीनता कही जानी चाहिए और संविधान का उल्लंघन भी, क्योंकि यह जीवन के अधिकार को खतरे में डालती है।(ये लेखक के अपने विचार हैं)