एन. रघुरामन का कॉलम:दिमाग के लिए पढ़ना भी वैसा ही है, जैसा शरीर के लिए व्यायाम

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‘जब भगवान कुछ खाते ही नहीं हैं तो हम नेवैद्यम के तौर पर उनके सामने खाने की चीजें क्यों रखते हैं?’ अपने स्कूली दिनों में यह सवाल मैंने अपनी मां से पूछा था। उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। नेवैद्यम में से एक चीज मुझे खिलाने के बाद उन्होंने मेरी स्कूल बुक ली और मुझसे एक पेज पढ़ने को कहा, जहां महज दो लाइनें थीं। उन्होंने कहा, ‘मैं चाहती हूं कि तुम इसे रटकर हमेशा के लिए दिमाग में बसा लो।’ मैंने पांच मिनट से भी कम समय में यह कर लिया और लौटकर एक-एक शब्द सुना दिया। फिर उन्होंने पूछा, ‘तो क्या तुम्हारे दिमाग में इस पेज का हर शब्द आ गया है?’ मैंने गर्व से कहा, ‘हां।’ उन्होंने अपना सिर हिलाया और बोलीं कि ‘अच्छा, अब किताब लाओ, जरा मैं देखूं।’ मैंने तुरंत किताब दे दी। उन्होंने पेज देखकर कहा कि ‘नामुमकिन। इस किताब से तुम्हारे दिमाग में एक अक्षर तक नहीं गया। देखो, सारे अक्षर तो यहीं हैं। अगर ये तुम्हारे दिमाग में होते, तो पेज खाली होना चाहिए था।’ फिर उन्होंने मुझे नेवैद्यम का असल अर्थ और उसकी भावना समझाई। मैंने पूछा कि यह बात उन्हें किसने बताई तो उन्होंने कांचीपुरम मठ के श्री चंद्रशेखरेंद्र सरस्वती स्वामीगल का नाम लिया और उनकी किताबें मुझे पढ़कर सुनाईं। यहीं से पढ़ने में मेरी रुचि धीरे-धीरे बढ़ती गई। मेरी मां मुझे ढेरों किताबें पढ़कर सुनाती थीं और मानती थीं कि बच्चे के जीवन में पढ़ने का कोई विकल्प नहीं है। बेस्ट सेलिंग फंतासी बुक सीरीज हैरी पॉटर की प्रख्यात ब्रिटिश लेखिका जेके रोलिंग ही ऐसी नहीं, जो सोते वक्त बच्चों को कहानियां सुनाने को महत्वपूर्ण मानती हैं- मेरी मां भी इसमें भरोसा रखती थीं। मेरे पिता अखबार पढ़वाकर मेरा उच्चारण जांचते थे। कॉलेज के दिनों में जब मैं शॉर्टहैंड सीख रहा था, वे संपादकीय पन्नों से डिक्टेशन दिया करते थे। इससे मैंने न सिर्फ भाषा सीखी, बल्कि मुझे नेताओं की राय और विचारों का भी पता चला। इस हफ्ते मुझे ये बातें तब याद आईं, जब उत्तर प्रदेश सरकार ने सभी सरकारी माध्यमिक स्कूलों में छात्रों के लिए अखबार पढ़ना अनिवार्य कर दिया। ताकि उनमें पढ़ने की आदत डाली जा सके, स्क्रीन टाइम कम किया जा सके और उनमें तार्किक सोच विकसित की जा सके। प्रारंभिक एवं माध्यमिक शिक्षा विभाग के अतिरिक्त मुख्य सचिव पार्थसारथी सेन शर्मा की ओर से 23 दिसंबर को जारी आदेश में कहा गया है कि अंग्रेजी और हिंदी, दोनों ही अखबारों को स्कूलों की रोजमर्रा की अध्ययन संस्कृति का हिस्सा बनाया जाए। यह नया आदेश नवंबर में जारी उस आदेश की कड़ी में था, जिसमें छात्रों में पढ़ने की आदत विकसित करने के तरीकों पर बात की गई थी। 23 दिसंबर के आदेश में अत्यधिक स्क्रीन टाइम को हतोत्साहित करते हुए छात्रों को ‘फिजिकल’ अखबार पढ़ने की सलाह दी गई, ताकि उनमें एकाग्रता बढ़ सके। आदेश में कहा गया है कि ‘रोजाना मॉर्निंग असेंबली में 10 मिनट की न्यूज रीडिंग की जानी चाहिए। इसमें छात्र बारी-बारी से संपादकीय लेखों के मुख्य बिंदु, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय व खेल जगत की सकारात्मक खबरें पढ़कर सुनाएंगे।’ आदेश में यह भी है कि आमतौर पर छात्र अपने पसंदीदा विषयों तक ही सीमित रहते हैं, जबकि अखबार से उन्हें विज्ञान, संस्कृति और खेल के उन मसलों की जानकारी भी मिलती है, जिनके बारे में वे सामान्यत: नहीं पढ़ते। यह ‘एक्सीडेंटल लर्निंग’ उनका नॉलेज बेस बढ़ाती है। आपका पैशन, प्रोजेक्ट या पेशा कुछ भी हो, पढ़ने की आदत आपको लक्ष्य पाने में मदद करती है। पढ़ना हमें नए नजरिए समझाता है, सहानुभूति सिखाता है और दिमाग में नए विचार पैदा करता है। बिल गेट्स जैसे सभी सफल लोगों से पूछिए, वे भी सफलता का श्रेय पढ़ने को, खासकर अखबार पढ़ने की आदत को देते हैं। फंडा यह है कि बच्चों में अखबार पढ़ने की आदत डालिए। इससे उनका फोकस तेज होगा और आज की बड़ी समस्या बने स्क्रीन टाइम को घटाने में मदद मिलेगी।