एन. रघुरामन का कॉलम:लक्ष्य ऐसा बनाओ कि गूगल पर आपका नाम प्रकट होने लगे

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कल तक इस गांव की पहचान 225206 थी। उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के सआदतगंज पोस्टल हेड ऑफिस के तहत यह पिन कोड अगेहरा गांव के लिए इस्तेमाल होता था। और 24 दिसंबर को गांव आए एक पोस्टमैन ने अपने साथियों से कहा कि ‘आज मैं इसे डिलीवर करने पूजा के गांव जा रहा हूं।’ सोच रहे हैं कि एक नंबर को यह नाम कैसे मिला? 2011 की जनगणना के मुताबिक करीब 1100 की आबादी वाले इस गांव को 17 साल की पूजा पाल ने गूगल पर पहचान दिला दी। यह गांव पहले खेती और संबंधित ग्रामीण गतिविधियों से जुड़ा था। तो पूजा ने ऐसा क्या किया? पूजा भी दूसरे बच्चों की तरह स्कूल जाती थी। कई सालों तक वह भी अपने स्कूल में गेहूं कटाई के मौसम में उड़ने वाली धूल की शिकार बनी। स्कूलों और घरों के आसपास चलने वाले थ्रेशरों के कारण समूचे इलाके में यह लोगों के लिए, खासकर श्वास रोगों से जुड़ी गंभीर स्वास्थ्य समस्या बन चुकी थी। उसके स्कूल के समीप के थ्रेशर से रोजाना धूल कक्षा तक पहुंचती थी। बच्चों का पढ़ना, लिखना और यहां तक कि सांस लेना भी मुश्किल हो जाता था। दूसरों की तरह कक्षा-दर-कक्षा पास होती गई पूजा सातवीं में पहुंच गई, जहां बच्चे विज्ञान जैसे विषयों से परिचित होते हैं। उन्हें बताया जाता है कि विज्ञान और तकनीक से आप कई समस्याएं हल कर सकते हो। उसकी समस्या यह थी कि वह स्कूल में पढ़ाई पर ध्यान नहीं लगा पा रही थी। उसे यह भी बताया गया कि गेहूं कटाई और थ्रेशिंग रोके नहीं जा सकते, क्योंकि इसी से गांव की रोजी-रोटी चलती है। कुछ दिन बाद उसने मां को घर पर आटा छानते देखा तो उसे आइडिया आया कि अगर रसोई में किसी जाली से महीन कणों को छाना जा सकता है तो वैसी ही प्रक्रिया थ्रेसिंग के दौरान उड़ने वाली धूल को भी रोक सकती है। अपने विज्ञान शिक्षक राजीव श्रीवास्तव के साथ उसने एक ऐसे समाधान पर काम शुरू किया, जो व्यावहारिक व किफायती हो और व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल किया जा सके। पूजा से अपना कॉन्सेप्ट चार्ट पेपर पर स्केच करने को कहा गया। कागज और लकड़ी से बने शुरुआती प्रोटोटाइप ठोस नतीजा नहीं दे पाए। लेकिन वह अपनी डिजाइन को सुधारने में जुटी रही। आखिरकार टिन शीट और वेल्डिंग मशीन की मदद से एक कारगर मॉडल बन कर तैयार हो गया। इस नवाचार को ‘भूसा-धूल पृथक्करण यंत्र’ नाम दिया गया। इसने अनाज अलग करने के दौरान उड़ने वाले ऐसे धूल और सूक्ष्म कणों को प्रभावी तरीके से कम कर दिया, जो फेफड़ों को नुकसान पहुंचाते हैं और श्वास संबंधी बीमारियां बढ़ाते हैं। इसने किसानों और ग्रामीणों का बचाव किया। मॉडल ने गांव के बाहर के लोगों का ध्यान खींचा और पूरे जिले में इसकी चर्चा फैलने लगी। केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने मूल्यांकन और मंजूरी के बाद इंस्पायर अवार्ड के तहत इस मॉडल का चयन किया और पूजा को अंतरराष्ट्रीय एक्सपोजर विजिट का मौका मिला। 2025 में उसे जापान साइंस एंड टेक्नोलॉजी एजेंसी की महत्वपूर्ण पहल ‘साकुरा साइंस हाई स्कूल प्रोग्राम’ के लिए चुना गया। वह देशभर से चुने गए 54 भारतीय छात्रों में उत्तर प्रदेश की इकलौती छात्रा थी। इस कार्यक्रम में विज्ञान के गहन सत्र और टोक्यो का स्टडी टूर शामिल था। इससे पहले, उत्तर प्रदेश सरकार ने उसे बाल वैज्ञानिक के रूप में एक लाख रुपए का पुरस्कार प्रदान किया। कल, यानी 26 दिसंबर 2025 को घास-फूस के झोंपड़े में पली-बढ़ी 17 साल की पूजा अपने महत्वपूर्ण नवाचार के लिए प्रधानमंत्री बाल पुरस्कार ग्रहण करने जा रही है। पूजा उन 20 बच्चों में शामिल है, जिन्हें देशभर से इस सम्मान के लिए चुना गया है। गुरुवार को जब हम लंच कर रहे होंगे तो पूजा यह पुरस्कार ग्रहण कर रही होगी। योग्यता और जरूरत को देखते हुए जिला प्रशासन ने उसके परिवार को प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत स्थायी मकान भी मंजूर किया है। फंडा यह है कि अगर युवा पीढ़ी अपनी असीम ऊर्जा को सही दिशा में बहने दे तो उनके पास गूगल का फेवरेट बनने का अवसर होता है।