दिसंबर की कड़ाके की ठंड में अगर दो लोग फुटपाथ पर खड़े होकर कहें कि क्या आप अपनी नाक में रूई का फाहा डालेंगे, तो क्या साइंस की खातिर आप ऐसा करेंगे? शायद हां, या शायद नहीं। लेकिन अगर वे हर फाहे के बदले आपको 50 रुपए दें, तब क्या आप करेंगे? बहुत संभव है, हां। और तब आप घर पहुंचकर यह दावा भी कर सकते हैं कि मैं विज्ञान के लिए ठंड में खड़ा रहा। इस महीने अमेरिका के बोस्टन में दो लोगों ने राहगीरों से यही करने को कहा। इसके लिए उन्होंने न सिर्फ उन्हें दो डॉलर का भुगतान किया, बल्कि ऐसा करने का यह ठोस कारण भी बताया कि वे अगली बड़ी महामारी की जल्दी पहचान में योगदान देने जा रहे हैं। शुरुआत में बहुत कम लोग इसके लिए राजी हुए, लेकिन शाम ढलते-ढलते उनकी संख्या सैकड़ों में पहुंच गई। हर स्वैब के साथ साइमन ग्रिम यह समझने के अपने लक्ष्य के और करीब पहुंचते चले गए कि आबादी में कौन-से रोगाणु घूम रहे हैं। वे सिक्योरबायो में तकनीकी कार्यक्रम प्रबंधक हैं और वैज्ञानिकों की उस टीम का हिस्सा हैं, जो बीमारियों के प्रसार पर नजर रखने के नए तरीके विकसित कर रही है। पिछले 6 महीने से चल रही इस मुहिम में उनकी टीम ने 20,000 डॉलर खर्च करके 10,000 सैम्पल्स एकत्र कर लिए हैं। कोविड की तरह दूसरे रोगाणु भी हवा के जरिए फैलते हैं। वैज्ञानिकों को पता था कि अगर कोई व्यक्ति संक्रमित न हो, तब भी वायरस अकसर उसकी नाक के भीतर बने रहते हैं। पर्याप्त लोगों की जांच करने के बाद ग्रिम और उनकी टीम को यकीन हो गया कि वे स्थानीय आबादी में वायरसों के प्रसार के बारे में ठीक से जानकारियां जुटा सकेंगे। कड़ाके की ठंड के बावजूद कई लोगों ने इस प्रयोग के लिए हां कहा, और महज 2 डॉलर के लिए ही नहीं। डोनर्स के अलग-अलग कारण थे। कुछ ने कहा, मैंने यह कीटाणुओं के फैलाव को रोकने के लिए किया; कुछ अन्य ने कहा, मैं यह सुनिश्चित करना चाहता हूं कि हम सभी सुरक्षित रहें; वहीं युवा छात्रों का कहना था, हम टीके तैयार करने में मदद करके लोगों की रक्षा करना चाहते हैं। सभी सैम्पल्स स्वेच्छा से और गुमनाम रूप से दिए गए। इसके बाद सैम्पल्स को एक प्रयोगशाला में ले जाया गया, जहां जीन-सीक्वेंसिंग मशीनों ने इन्फ्लुएंजा, पोलियो, कोविड सहित कई संक्रामक वायरसों में पाए जाने वाले जेनेटिक मटैरियल्स की पहचान की। इसके बाद वे ऐसे वायरसों की भी पहचान करेंगे, जो ज्ञात रोगाणुओं के समान नहीं हैं, लेकिन जेनेटिक रूप से उनके इतने निकट जरूर हैं कि उनकी गहन निगरानी की आवश्यकता है। यदि ऐसे नए वायरस स्वैब परीक्षणों में बार-बार सामने आने लगें, तो यह इस बात का स्पष्ट संकेत होगा कि वे आबादी में फैल रहे हैं। यदि यह पद्धति प्रभावी सिद्ध होती है, तो यह भविष्य की महामारियों के लिए एक राष्ट्रीय प्रारम्भिक चेतावनी प्रणाली का हिस्सा बन सकती है। इस सप्ताह मुझे इस गतिविधि की तब याद आई, जब गुजरात के मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल ने मीडिया से कहा कि उनकी सरकार एक्यूआई को सुधारने, सार्वजनिक परिवहन को सुचारु बनाने और अंतरराष्ट्रीय मानकों की खेल सुविधाएं विकसित करने को प्राथमिकता देगी, ताकि 2030 के कॉमनवेल्थ गेम्स की अच्छे से मेजबानी की जा सके। उन्होंने कहा कि उनकी टीम प्रक्रियाओं को सरल बनाएगी, समय पर काम पूरे करेगी और परिणामों को सुनिश्चित करेगी। यह बहुत बड़ा लक्ष्य है, जिसमें स्पष्ट रूप से स्थानीय आबादी की भागीदारी आवश्यक होगी। आने वाले चार वर्षों में यह देखना दिलचस्प होगा कि स्थानीय लोग न केवल बुनियादी ढांचा तैयार करने, बल्कि सार्वजनिक परिवहन को तेज और प्रभावी बनाने तथा वायु गुणवत्ता को उस स्तर पर बनाए रखने में भी कैसे योगदान देते हैं, जहां खिलाड़ी और खेल जगत की हस्तियां अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर सकें। यदि इस आयोजन को वैश्विक मानक बनाना उद्देश्य है, तो इसमें स्थानीय लोगों के व्यापक योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अब यह देखना है कि सरकार स्थानीय नागरिकों को इस लक्ष्य में सहभागी बनाने के लिए क्या कदम उठाती है। फंडा यह है कि यदि आप आम लोगों को किसी बड़े उद्देश्य से जोड़ना चाहते हैं, तो ऐसी परिस्थितियां निर्मित करें, जिनमें वे योगदान देकर गर्वित महसूस करें। साथ ही अगर आर्थिक प्रोत्साहन भी हो तो क्या बुरा है।