एन. रघुरामन का कॉलम:क्या हम कम से कम रविवार को कृतज्ञता-पर्व मना सकते हैं?

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"क्या तुम घर पर हो?' शुक्रवार को जैसे ही मैंने फोन उठाया और मैं "हेलो आंटी' कहने ही वाला था कि आंटी ने तुरंत यह पूछ लिया। एक पल के लिए मैं डर गया और मुझे लगा कि कोई आपात-स्थिति आ गई है। जैसे ही मैंने "हां' कहा, उन्होंने बिना रुके आगे कहा, "क्या तुम जल्दी से तीन कप कॉफी बना सकते हो, मैं आ रही हूं और दस मिनट में वहां पहुंच जाऊंगी।' इतना कहकर उन्होंने फोन रख दिया। उन्होंने मेरे कुछ कहने का इंतजार भी नहीं किया। आठ मिनट से भी कम समय में वे ग्रॉसरी बैग्स लेकर मेरे घर पहुंच गईं और मुझे कुछ सामान फ्रीजर में रखने को कहा। मैं सोच में पड़ गया कि आखिर माजरा क्या है। तब जाकर उन्होंने पूरा वाकया बताना शुरू किया। उनकी "किराने की दुकान वाली दोस्त' मेरे घर के पास वाले अस्पताल में भर्ती हुई थीं और उन्हें यह बात तब पता चली जब वे खरीदारी कर रही थीं। उन्हें एक फ्लैस्क में दो कप कॉफी चाहिए थी, और मैंने ऐसा ही किया। मैंने पूछा, "किराने की दुकान वाली दोस्त?' कॉफी की चुस्की लेते हुए उन्होंने जवाब दिया- "छह महीने पहले, सिर्फ एक सामान खरीदते समय मैंने एक खाली कैश-लेन देखी। लेकिन इससे पहले कि मैं कुछ कर पाती, मेरी यह दोस्त- जो मुझसे दस साल बड़ी हैं- ग्रॉसरी से भरा एक पूरा कार्ट लेकर वहां चली आईं। मैं रुकी और पहले उन्हें जाने के लिए कहा। लेकिन वे पीछे हट गईं, और जिद करने लगी कि पहले मुझे ही जाना चाहिए, क्योंकि मुझे सिर्फ एक ही सामान खरीदना था। मैंने मना कर दिया और कहा कि पहले वे जाएंगी, लेकिन उन्होंने अधिकारपूर्वक मुझे जाने दिया। मैंने उन्हें धन्यवाद दिया और हम बातचीत करने लगे, स्टोर की सुविधाओं के बारे में बातें करने लगे। हमने एक-दूसरे का अभिवादन किया और चली गईं। अगले महीने फिर हमारी मुलाकात हुई और मुझे पता चला कि वे हर महीने के पहले शुक्रवार को खरीदारी करती हैं, क्योंकि उस दिन वहां आमतौर पर भीड़ कम होती है। खरीदारी के बाद, हमने कॉफी पी और मुझे पता चला कि उन्हें दक्षिण भारतीय कॉफी बहुत पसंद है। पिछले चार महीनों से वे दोस्त हैं। चूंकि मेरी आंटी को वे इस शुक्रवार को स्टोर में नहीं मिलीं, इसलिए उन्होंने उन्हें फोन किया। तब पता चला कि वे मेरे घर के पास वाले अस्पताल में भर्ती हैं। मेरी आंटी ने कहा, "उस एक कनेक्शन ने हमारे दिनों को उजला कर दिया और शायद हम दोनों को लगा कि उस पल दुनिया थोड़ी और दयालु हो गई है।' आंटी के जाने के बाद वह मेरे लिए एक तरह का बोध (अचानक और बड़े रहस्योद्घाटन या अनुभति का क्षण) था। मुझे याद आया कि 1990 के दशक में अमिताभ बच्चन कैसे "गिव ऑर गो' का खेल खेलते थे। वे अपनी कार को किनारे लगाकर मुझे उस इमारत के पार्किंग एरिया में जाने देते थे, जहां उनकी सेक्रेटरी रोजी सिंह रहती थीं। चूंकि मैं अकसर उस इमारत में जाता था, इसलिए अमित जी से मेरी मुलाकातें होती रहती थीं। वे देर रात तक काम के बाद अकसर खुद ही रोजी को घर छोड़ने आते थे। उस संकरी-सी इमारत में- जहां दोनों तरफ गाड़ियां खड़ी रहती थीं- वे हमेशा कोई न कोई जगह ढूंढ लेते थे और मुझे या दूसरों को वहां से जाने देते थे। और जब मैं शुक्रिया अदा करता, तो वे विनम्रता से हाथ उठाकर उसका जवाब देते थे। हर बार जब वे ऐसा करते, मुझे लगता कि मैं किसी "कृतज्ञता-पर्व' में आ गया हूं। कई दिनों तक मुझे अच्छा लगता रहता और अब तो मेरी भी औरों के लिए मददगार होने की आदत हो गई है। तो अगली बार जब कोई गाड़ी आपको आगे निकलने दे, कोई आपके लिए कार का दरवाजा खोले, आपके कपड़ों की तारीफ करे, आपसे गिर गई कोई चीज उठाए, शेल्फ से कोई ऐसी चीज निकालकर दे जिस तक आपके हाथ नहीं पहुंच रहे हों, मेट्रो में सीट ऑफर करे- तो उनकी आंखों में देखें, मुस्कराएं और एक छोटा-सा "शुक्रिया' कहें। फंडा यह है कि कृतज्ञता व्यक्त करने से हमें कोई इनाम नहीं मिलता, लेकिन यह हमें समृद्ध बनाता है। हम पूरे सप्ताह किसी ना किसी दौड़धूप में लगे रहते हैं, तो क्या हम कम से कम रविवार को थोड़ा धीमा होकर इसे सभी के लिए कृतज्ञता का उत्सव नहीं बना सकते?