एक दोस्त ने मुझसे कहा था कि तीन साहित्यिक रॉक स्टार महिलाओं के बारे में लिखने का क्या फायदा, जिन्हें पहले ही मीडिया का बहुत अटेंशन मिल रहा हो। ‘महिलाएं पुरुषों से ज्यादा क्यों पढ़ती हैं’ शीर्षक से अपने एक लेख में एरिक वेइनर लिखते हैं, ‘कुछ साल पहले ब्रिटिश लेखक इयान मैकइवान ने एक प्रयोग किया। वे और उनका बेटा लंदन के एक पार्क में दोपहर के भोजन के समय भीड़ में घुस गए और मुफ्त किताबें बांटने लगे। कुछ ही मिनटों में उन्होंने 30 उपन्यास वितरित कर दिए। इन्हें लेने वाली लगभग सभी महिलाएं थीं, जो मुफ्त की इस भेंट के लिए ‘उत्सुक और आभारी’ थीं, जबकि पुरुष संशय या अरुचि से नाक-भौं सिकोड़ रहे थे। मैकइवान ने निष्कर्ष निकाला कि अगर महिलाएं पढ़ना बंद कर दें, तो उपन्यास विधा की मृत्यु हो जाएगी।’ तो मैं यहां इस विषय पर लिख रहा हूं कि महिलाएं कैसे पढ़ती हैं। और हम उन महिलाओं के बारे में पर्याप्त बातें क्यों नहीं करते, जो लिखती भी हैं? 2025 के साल ने कुछ असाधारण भारतीय लेखिकाओं को सुर्खियों में ला दिया है। बानू मुश्ताक और दीपा भस्ती ने ‘हार्ट लैम्प’ के लिए अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीता था। यह लघु कथाओं का संग्रह मुख्यतः कर्नाटक की मुस्लिम महिलाओं के जीवन पर केंद्रित है। इन जमीनी और ईमानदार कहानियों को अब तक अकेले भारत में ही एक लाख से ज्यादा पाठक पढ़ चुके हैं। बानू और दीपा को इसके लिए देश-विदेश में उचित ही सम्मानित किया गया है। ‘हार्ट लैम्प’ की लेखिका एक एक्टिविस्ट, वकील और इतिहासकार के रूप में उन महिलाओं के जीवन को गहराई से जानती हैं, जिनके बारे में उन्होंने लिखा है। वहीं अनुवादिका ने स्थानीय बोली-बानी की तमाम बारीकियों को पकड़ा है। वहीं कर्नाटक से दूर, न्यूयॉर्क के क्वींस में रहने वाली किरन देसाई ने बुकर पुरस्कार जीतने के बाद अपनी अगली किताब लिखने में 20 साल लगा दिए। एक आधुनिक प्रेम की कहानी, जो भारत से दूर रहने वाले भारतीयों की है। लेकिन किरन ने जो भी लिखा है, उसे समर्पित होकर वर्षों की मेहनत से निखारा है। उनके नए उपन्यास ‘द लोनलीनेस ऑफ सोनिया एंड सनी’ के बुकर पुरस्कार के लिए चुने जाने के कुछ घंटों बाद मैंने उनसे पूछा, ‘बीस सालों तक एक ही किताब पर काम करने के लिए आपने किस अनुशासन का पालन किया?’ उन्होंने मुझे बताया : ‘मैं एक ऐसे अनुशासन का पालन करती हूं, जो मुझे लगता है कि इतने सालों की मेहनत के बाद अब मुझमें गहराई से समाया हुआ है। हर सुबह मैं सीधे अपनी मेज पर जाती हूं। मैं इसे एक आध्यात्मिक अनुशासन, संयम की एक आचार-संहिता मानती हूं। मैं इसका पालन करती हूं, ताकि अच्छे से काम कर सकूं। मैं हर दिन काम करती हूं, किसी चींटी, मधुमक्खी या केंचुए की तरह। मैं वास्तविक जीवन के एक छोटे-से कतरे को कलात्मक रूप में ढालती हूं, बिना यह जाने कि मैं किस दिशा में काम कर रही हूं। जैसे किसी चींटी को पता नहीं चलता कि क्षितिज के परे क्या है फिर भी वह काम करती रहती है, उसी तरह मैं भी बीते कई सालों से काम कर रही हूं।’ किरन की मां अनीता देसाई की किताब ‘रोसारिता’ बराक ओबामा की 2025 की समर-रीड्स की सूची में शामिल थी। अगर अनीता देसाई 88 की उम्र में भी ऐसा लिख सकती हैं, तो हम सभी को उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए। और बुकर विजेताओं की बात करें तो उस महिला के बारे में क्या कहें, जिन्होंने यह सब शुरू किया- अरुंधति रॉय। उनकी नई किताब ‘मदर मैरी कम्स टु मी’ एक असामान्य बचपन का वृत्तांत है, जो हमें बताता है कि कैसे एक महिला को हमेशा एक आदर्श मां या बेटी के रूप में चिह्नित नहीं किया जा सकता। शायद यह एक लेखिका के रूप में अरुंधति के व्यक्तित्व के निर्माण के बारे में भी है। लेकिन अगर हम लिखने वाली महिलाओं की बात कर रहे हैं, तो क्यों न इस अंतर को पाटकर उन महिलाओं की भी बात करें, जो पाठकों तक किताबों को पहुंचाती हैं? आज देश भर के कई शहरों में महिलाओं द्वारा शुरू किए गए इंडिपेंडेंट बुकस्टोर्स और लाइब्रेरियां खुल रही हैं। वे किताबों को पाठकों तक पहुंचाना चाहती हैं। अमेजन के एल्गोरिदम से परे आज ज्यादा से ज्यादा महिलाएं किताबें खरीदने वाले युवा और बुजुर्ग पाठकों से बात कर रही हैं और जादुई किताबें उनके हाथों में थमा रही हैं। तो क्या पढ़ने, लिखने और किताबों के सृजन का भविष्य महिलाओं के हाथों में है? पता नहीं। लेकिन अगर ऐसा है, तो एक प्राथमिक विद्यालय की शिक्षिका के बेटे और खूब पढ़ने वाली एक महिला के पति के रूप में मुझे यकीन है कि किताबें एआई के आक्रमण के बावजूद एक लम्बी उम्र तक जीवित रहेंगी। आज देश के कई शहरों में महिलाओं द्वारा शुरू किए बुकस्टोर्स और लाइब्रेरियां खुल रही हैं। वे किताबों को पाठकों तक पहुंचाना चाहती हैं। अमेजन के एल्गोरिदम से परे आज ज्यादा से ज्यादा महिलाएं किताबें खरीदने वालों से संवाद कर रही हैं।(ये लेखक के अपने विचार हैं।)