पवन के. वर्मा का कॉलम:एक देश के रूप में हमें सच्ची असहमतियों की जरूरत है

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हाल ही में, नेपाल की जेन-जी क्रांति को लेकर मैं एक टीवी बहस में सहभागिता कर रहा था। मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि न्यूज एंकर नेपाल में ऐसा क्यों हुआ, इसके कारणों का विश्लेषण करने के बजाय इस बात को लेकर ज्यादा चिंतित थे कि हमारे यहां भी ‘अराजकतावादी’ ताकतें भारत को नेपाल बनाने की कोशिश कर रही हैं। सच कहूं तो इससे मैं हैरान था, क्योंकि भारत नेपाल नहीं है। नेपाल की राजनीतिक उथल-पुथल एक भिन्न ऐतिहासिक संदर्भ से उपजी थी। यह एक ऐसी स्थिति थी, जहां लोकतांत्रिक संस्थाएं परिपक्व नहीं हुई थीं और राज्यसत्ता अधिनायकवादी राजशाही और कमजोर लोकतंत्र के बीच झूल रही थी। दूसरी ओर, भारत 75 वर्षों से भी ज्यादा समय से कुछ खामियों के बावजूद एक कार्यशील लोकतंत्र रहा है। ऐसे में भारत में जताई जाने वाली असहमतियों की तुलना नेपाल की अराजकता से करना हमारे संवैधानिक गणराज्य की बुनियाद को नजरअंदाज करना है। हाल के वर्षों में हमारा सार्वजनिक विमर्श एक परेशान करने वाली ध्रुवीकृत वस्तुस्थिति द्वारा तेजी से अपहृत होता जा रहा है। इसमें या तो कोई धुर राष्ट्रवादी और सरकार के प्रति पूरी तरह से निष्ठावान होता है, या उस पर अराजक इरादे रखने और राज्यसत्ता को ही ध्वस्त करने के मनसूबे संजोने का इल्जाम मढ़ दिया जाता है। भारत जैसे विशाल, बहुलतावादी और जटिल लोकतंत्र में यह संकीर्ण नैरेटिव ठीक नहीं है। विरोध या आलोचना की तुलना अराजकता के साथ करना न केवल बौद्धिक बेईमानी है, बल्कि ऐतिहासिक रूप से गलत और राजनीतिक रूप से भी खतरनाक है। किसी भी कार्यशील लोकतंत्र में असहमति कोई विलासिता नहीं, बल्कि एक आवश्यकता होती है। भारतीय संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शांतिपूर्ण सभा और विरोध-प्रदर्शन का अधिकार निहित है। अब यह कहना कि छात्रों, किसानों, मजदूरों या नागरिक समाज द्वारा किए गए विरोध-प्रदर्शन नेपाल सरीखी अराजकता या देशद्रोह तक के समान हैं, उनकी जायज शिकायतों के मूल कारणों की अनदेखी करना है। अगर आलोचना और तोड़फोड़ में कोई अंतर नहीं रह जाता, तब केवल एक मौन नागरिक ही स्वीकार्य नागरिक बनकर रह जाएगा। और मौन नागरिकों का लोकतंत्र केवल नाम का ही लोकतंत्र हो सकता है। सच तो यह है कि गर्व करने लायक उपलब्धियों के साथ-साथ नागरिकों को चिंतित करने वाली कई शिकायतें भी मौजूद रहती हैं। एक तरफ तो देश में ‘अमृत काल’ यानी विकास के स्वर्णिम युग की बयानबाजी सार्वजनिक भाषणों और मीडिया की बातों पर हावी है। वहीं दूसरी ओर, बेरोजगारी, बढ़ती असमानता, कठोर कानून, अधिनायकवाद, भ्रष्टाचार, क्षेत्रीय असंतुलन और लगातार गरीबी के कारण, खासकर युवाओं में स्पष्ट रूप से गहराती निराशा भी इसी देश का सच है। अगर इन मुद्दों पर जायज विरोध-प्रदर्शन होते हैं, तो सत्ता में बैठे लोगों के लिए आसान उपाय यही है कि इन्हें अराजकतापूर्ण घोषित कर दें। यह विचार कि किसी भी प्रकार की असहमति देश को तोड़ देगी, सत्तावादी उपायों को सही ठहराने में मदद करता है और विपक्ष के दमन का रास्ता खोलता है। लेकिन भारतीय राष्ट्र इतना कमजोर नहीं है कि कुछ छात्र विरोध-प्रदर्शन से उसे गिरा सकें। विरोध-प्रदर्शन को अराजकता कहना भारतीय जनता की बुद्धिमत्ता का अपमान करना भी है। आम नागरिक किसी बड़ी साजिश का मोहरा नहीं होते हैं। देश के लोग सही और गलत में अंतर करने में सक्षम हैं, और उनका गुस्सा अकसर विचारधारागत पूर्वग्रहों नहीं, बल्कि वास्तविकता से प्रेरित होकर उपजता है। विरोध और अराजकता के बीच इस झूठी तुलना का एक कारण मीडिया का एक वर्ग भी है। सत्ता पर सवाल उठाने के बजाय कई न्यूज चैनल दुष्प्रचार को बढ़ावा देते हैं, असहमति के इर्द-गिर्द उन्माद पैदा करते हैं और हर आलोचक को खलनायक साबित कर देना चाहते हैं। बुद्धिजीवी भी इसमें शामिल हैं- या तो अपनी चुप्पी या अपने चुनिंदा आक्रोश के जरिए। देशभक्ति को किसी राजनीतिक दल के प्रति वफादारी के रूप में परिभाषित नहीं किया जा सकता। एक देश के रूप में भारत को सूझबूझपूर्ण, रचनात्मक और समावेशी असहमति की जरूरत है। केवल एक आत्मविश्वासी राष्ट्र ही अपने नागरिकों को स्वतंत्र होकर बोलने, खुलकर आलोचना करने और शांतिपूर्ण ढंग से विरोध करने की अनुमति देता है। एक बेहतर भारत का रास्ता चुप्पियों नहीं, संवाद से होकर जाता है। अपने ही देश में विरोध के अधिकार को अराजकता करार देना लोकतंत्र का गला घोंटना है। यह शोर को अव्यवस्था और सवाल को विद्रोह समझने की भूल है। जबकि हमें असहमति नहीं, उसकी अनुपस्थिति से डरना चाहिए।(ये लेखक के अपने विचार हैं।)